२४१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२५२)
पद:-
धन्य मन्सूर मस्ताना रहा निर्भय न चिल्लाना।
शकल जब देखी फाँसी की चूम कर खूब हाँसी की।
हमै निज धाम को भेजिहौ गले में डोर को सजिहौ।
बहुत पत्थर के पारों से मारते हँसते यारों से।
बहुत लखि लखि के चिल्लाते होय मुरछा औ गिर जाते।
हाथ औ पैर काटेगे नाक औ कान छाँटेगे।६।
ज़वाँ मुख से निकलवाया आँख दोनों को कढ़वाया।
खून के बूँद जो गिरते अनहलहक शब्द सुनि पड़ते।
फेरि सूली पै चढ़वाया नेकहूँ भय नहीं खाया।
छोड़ि तन निज वतन धाया प्रभु निज पास बैठाया।
दोऊ दिसि ते विजय पाया कहैं अंधे न जग आया।
हुये हैं और होवैंगे त्यागि तन जग न रोवैंगे।१२।