२८० ॥ श्री राम दीन जी॥
जारी........
लय में पहुँचि जाय जब प्रानी तन मन सुधि बिसराई जी।
हरि की इच्छा से बढ़ि आगे महाशून्य में जाई जी।
महाशून्य को बेधन करिकै तब गोलोक मंझाई जी।
श्री गोलोक में कृष्ण मनोहर दर्शन करि सुख पाई जी।
वहाँ से चलि साकेत पुरी में पहुँचि जाय हर्षाई जी।२०।
राम ब्रह्म के दर्शन होवैं शोभा वरनि न जाई जी।
जियतै में जो जानि लेय सोई मरि कै फिरि जाई जी।
सत्य पुरुष से जानि कै साधन करै जौन सो पाई जी।
नाहीं तो अगणित जन्मन तक चक्कर काटै भाई जी।
संतन में सामर्थ होत दें कर्म कि रेख मिटाई जी।
राम नाम को जानि लीन कछु ता को बल है भाई जी।
हरि हर दम संग रहत हैं उनके सत्य बचन यह आई जी।
जो कछु कहैं करैं प्रभु तुरतै नेक देर नहि लाई जी।
प्रेम से वश संतन हरि कीन्हो प्रीति अधिक अधिकाई जी।
राम भजन में कछु खरचा नहिं कौड़ी लगै न पाई जी।३०।
भूल भुलैया में पड़िगे हैं राह न ढूढ़त भाई जी।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य जाति अभिमान में बूड़े आई जी।
पार कहाँ से होवैं वै तो स्वयं सिद्ध बनि जाई जी।
अन्धा ज्ञान कथैं पढ़ि सुनि कै नर्क पड़ैं वै जाई जी।
नीच नीच सब तरत जात हैं राम नाम जपि भाई जी।
धनि कलियुग गुरु भाई तुम्हारी देखा हम चतुराई जी।
अपनै तो परिवार पै किरपा करत सबै कोइ भाई जी।
कौन जवाब देंय हम तुमको रीति सदा चलि आई जी।
जैसा चाहौ तैस करौ तुम राज्य तुम्हारी आई जी।
अब कछु हाल और बतलावैं सुनिये चित्त लगाई जी।४०।
कसनी कितनौ परै रैन दिन सब सह लेवै भाई जी।
करि विश्वास टरै नहिं नेकौं चाहै शरीर कटि जाई जी।
करै समर यश होय जगत में तब हरि के ढिग जाई जी।
पास होय दुख नाश होंय जो असल होय ठहराई जी।
कच्चे गुरु क चेला कच्चा पक्के का करि पाई जी।
यह लीला श्री राम ब्रह्म की देखत ही बनि आई जी।
भीतर बाहर सम ह्वै जावै सो कछु जानै भाई जी।
अपनै आप ते कहत देखिये अपनै खेलत भाई जी।
कहीं पै भोजन नाना बिधि के कहीं पै सत्तू पाई जी।
कहीं पै टुकड़ा मांगि के खावैं कहीं पै चना चबाई जी।५०।
कहीं पै शाल दुशाला ओढ़े कहीं पै फटी दुलाई जी।
कहीं पै जाड़ेन थर थर काँपैं कहीं पै फूस लुकाई जी।
कहीं पै सुन्दर भवन में रहते कहीं कुटी में जाई जी।
कहीं पै कौड़ी कानी नाहीं कहीं पै द्रब्य लुटाई जी।
कहीं पै असवारी पै चलते कहीं पै पैदर धाई जी।
कहीं पै दाता बने बैठ हैं कहीं मंगता ह्वै जाई जी।
कहीं पै भूख के मारे व्याकुल कहीं पै देत हटाई जी।
कहीं पै धूनी ताप रहै हैं कहीं पै भस्म रमाई जी।
कहीं पै बैठे मूड़ मुड़ाय कहीं जटा रखवाई जी।
कहीं पै बैठे पाठ करत हैं कहीं कीरतन भाई जी।६०।
कहीं पै माला को जप करते कहीं पै ध्यान लगाई जी।
कहीं पै जड़ समाधि कियो धारन कहीं पै लय को भाई जी।
कहीं नाम को मानि रहे हैं कहीं रूप सुखदाई जी।
कहीं नाम औ रूप न मानैं केवल शून्य सोहाई जी।
कहीं शून्यहूँ को नहिं मानत सत्य लोक को भाई जी।
कहीं मूर्ति की पूजा करते कहीं नहीं मन भाई जी।
ज्ञानी ह्वै कहिं ज्ञान कथत हैं कहीं न ज्ञान सोहाई जी।
जारी........