॥ अथ फुल बगिया बर्णन॥
जनक फुल बगिया अति सुखदाय।
भाँति भाँति फल फूल लगे तँह शोभा बरनि न जाय।
चातक कीर सारिका कोकिल बोलत आनन्द छाय।
हंस मयूर महरि औ होरिल रहे किलोल मचाय।
चकई चकवा बहु रंग पच्छी कँह लगि तुम्है बताय।५।
षट रंग मृगा तँहा पर देखा नाभि से महक उड़ाय।
दादुर कमठ मीन सागर में करत बास सुख पाय।
एक सहस फुल बगिया जनक के सत्य तुम्हैं समुझाय।
दस दस सहस बीगहा केरी निरखत मन ललचाय।
दुइ दुइ सहस रहैं तँह माधौ सेवा के हित भाय।१०।
यह आनन्द कहाँ तक बरनौ कहत कहत अधिकाय।
सुर मुनि घूमन को नित आवैं मानुष रूप बनाय।
एक एक बगिया के मध्य में पोखर एकै एक सुहाय।
निर्मल बारि भरा अति गहरा पृथ्वी तलक देखाय।
कन्द मूल अति मधुरे चिक्कन लम्बे गोल हैं भाय।
नृप ने ऐसे बाग संवारे कृष्ण दास कहैं गाय।१६।