॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
प्रभु से कहैं सुखेन सुनाय। प्राण का पता लगत नहिं भाय॥
कान्ति मुख की वैसै चमकाय। बड़े ताजुब की बात देखाय॥
दवा दूसरि लगिहै नहि भाय। सजीवनि लता मिलै दुख जाय॥
नहीं तो भोर होत सुखदाय। लखन नहिं जियैं दीन बतलाय।३५७०।
कहैं हरि कहाँ लता वह भाय। बताओ मिलै तो लेंय मंगाय॥
कहैं तब वैद्य सुखेन सुनाय। उत्तराखण्ड दूर गिरि भाय॥
नाम दौनागिरि तासु कहाय। जड़ी नाना बिधि की तहँ भाय॥
सजीवनि में परकाश देखाय। और सब में परकाश न भाय॥
कहैं प्रभु चारि बजे हैं भाय। जहाँ तक बनिहै करब उपाय।३५८०।
कहैं तहँ जाम्वन्त सुखदाय। पवन सुत सब समरथ हैं भाय॥
लाइहैं भोर न होने पाय। पवन सम पवन तनय चलि जाँय॥
सुनैं हनुमान बचन यह भाय। फूल तन अष्ट गुणा ह्वै जाय॥
कहैं हरि से चरनन शिर नाय। आप की कृपा से हम चलि जाँय॥
कौन अस कार्य्य जगत में आय। जौन नहिं होय आप किरपाय।३५९०।
कहन की देर प्रभु सुखदाय। करन में देर न सकौं लगाय॥
कहैं प्रभु जाव बीर सुखदाय। सजीवनि लता लै आओ धाय॥
चलै बजरंग चरन शिर नाय। पवन के तनय पवन सम धाय॥
जाय गिरि ऊपर पहुँचैं जाय। घूमि कर लखैं लता को भाय॥
नहीं परकाश कहूँ दिखलाय। कई रंग लता वहाँ पर भाय।३६००।
निरखतै तन मन अति हर्षाय। मनै मन कहैं पवन सुत भाय॥
चलैं लै गिरि के सहित उठाय। चीन्ह तँह वैद्य लेंय हर्षाय॥
फेरि गिरि धरैं यहाँ पर लाय। सुमिरि कै राम सिया सुखदाय॥
गदा को खोंसि जांघिया भाय। पकरि कै पर्वत लेंय उठाय॥
बाम कर पर धरि लें सुखदाय। गदा दहिने कर साधैं भाय।३६१०।
उड़ैं लै चलैं बेग से धाय। आय फिरि अवध के ऊपर जाँय॥
शब्द फिरि हा हा कार सुनाय। भरत सुनि गुफा के बाहेर आय॥
लखैं कोइ राक्षस सम दिखलाय। बाण थोथा एक देंय चलाय॥
गिरैं हनुमान तहाँ पर आय। राम को नाम सुमिरि सुखदाय॥
पवन पर्वत को पकड़ैं धाय। गिरै नहि ऊपर ही रुकि जाय।३६२०।
भरत पहुँचैं तुरतै तहँ धाय। लखैं हनुमान शोक उर छाय॥
उठाय के छाती लेंय लगाय। कहैं अब जाओ बेग से धाय॥
बाण पर तुम्हैं देंव पठवाय। सहित गिरि देर न लागै भाय॥
कहैं हनुमान सुनो सुखदाय। आप सब समरथ हरि सम भाय॥
बाण एक थोथा दिहेव चलाय। गिरेन हम धरनि में तुरतै आय।३६३०।
बाण पर देहौ आप पठाय। वेग हम में वैसा नहिं भाय॥
जाव हम शर समान चलि धाय। आप की कृपा न देर लगाय॥
देव अब अज्ञा मोहिं सुखदाय। जाँय हरि के ढिग गिरि लै धाय॥
भरत जी उर में लेंय लगाय। शत्रुहन मिलैं लपटि हर्षाय॥
चरण दोनो भाइन सुखदाय। परैं उठि चलैं पवन सुत धाय।३६४०।
पवन से लै कर गिरि को भाय। बाण सम चलैं बीर सुखदाय॥
यहाँ श्री भरत शत्रुहन भाय। पठावैं गुरु के पास में जाय॥
चरण में परैं कहैं सब गाय। गुरु संग राज सदन में जाय॥
आय रानी चरनन परि जाँय। पाय आशिष बैठैं हर्षाय॥
शत्रुहन चरन छुवैं हर्षाय। देंय आशिष माता सुखदाय।३६५०।
हाल सब गुरु देंय बतलाय। सुनैं सब शान्त चित्त से माय॥
पुरी भर में देवैं जनवाय। सबन के उर में धीरज आय॥
शत्रुहन गुरु मातन शिर नाय। भरत के पास में पहुँचैं जाय॥
चरन में परि उठि कहैं सुनाय। श्री गुरु सब को दीन जनाय॥
जारी........