॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
सबै जीवन को दुख हो भाय। रास्ता सब जीवन रुकि जाय।१५७०।
इधर ते उधर जाँय किमि भाय। जाय के उदधि देंय समुझाय॥
सुखी तन मन से हो दुख जाय। कहैं लछिमन सुनिये सुखदाय॥
सेतु एक या में देव बंधवाय। बड़ा परतापी रावण भाय॥
न बांध्यौ सेतु कौन कठिनाय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥
बिधाता की इच्छा नहि आय। समय पर काम होय सब आय।१५८०।
ठीक संघटन सबै भिड़ि जाय। जानते हौ सब लछिमन भाय॥
बात लरिकन कस करत बनाय। कहै लछिमन सुनिये सुखदाय॥
आप की माया देत भुलाय। लोक बिधि के हर के शेषाय॥
इन्द्रपुर चारौं बैकुण्ठाय। रही सब जग में धूम मचाय॥
नहीं पहुँचै साकेत को भाय। करै अभिमान नेक जो भाय।१५९०।
गिराय के छाती बैठै धाय। आपके चरणन चित्त लगि जाय॥
बचै सोई प्राणी सुखदाय। न ज्ञानी ध्यानी कोई भाय॥
आप चाहैं तस देंय बनाय। कहैं रघुनाथ सुनो मम भाय॥
प्रेम की बात तुम्हैं समुझाय। प्रेम जा के तन मन ह्वै जाय॥
निरखि कै लीला कहि नहि पाय। हमारा रूप प्रेम है भाय।१६००।
रहै सब जगह सुनो चित लाय। जगत के कार्य्य में प्रेम लगाय॥
न पावै हम को कोई भाय। प्रेम यह दुनियावीहै भाय॥
फंसावै अधिक अधिक अरुझाय। प्रेम सांचा जौ करत है भाय॥
उसी को हर दम हम दर्शाय। प्रेम से ठौरे हम प्रगटाँय॥
प्रेम में प्रेम मिलै जब भाय। अखण्डित धुनी नाम मम पाय।१६१०।
जाय वह अमर पुरी हर्षाय। गुरु के बचन हृदय में लाय॥
करै कामना न कोई भाय। उसी के संग खेलैं हम जाय॥
खाँय जल पीवैं तन लपटाय। लेव तुम नल नीलै बोलवाय॥
जानते हैं वे सेतु उपाय। कार्य्य यह कौन कठिन है भाय॥
बड़ी आसानी से बंधि जाय। बुलावैं लछिमन दोनो भाय।१६२०।
आय के चरन परैं हर्षाय। उठैं औ कहैं सुनो सुखदाय॥
हमै क्या आज्ञा कहौ सुनाय। करैं हम दोउ तन मन हर्षाय॥
न लावैं देर नेकहू भाय। कहैं लछिमन सुनिये दोनों भाय॥
सेतु तुम उदधि में देहु बनाय। पार सब चलौ कटक सुखदाय॥
जगत में कीरति तुमरी छाय। कहैं दोउ भाई शीश नवाय।१६३०।
आप की किरपा सब बनि जाय। कहौ सब कपि ऋक्षन से भाय॥
गिरिन को लावैं झट पट धाय। वाँधने में नहि देरी भाय॥
देखिहौ स्वामी मन हर्षाय। श्राप की आशिष ह्वै गई आय॥
कृपा निधि की इच्छा यह भाय। कहैं तब लछिमन कटक ते भाय॥
लै आओ पर्वत जहँ तहँ धाय। बांधिहैं सेतु को नल नीलाय।१६४०।
उतरि सब चल्यौ पार सुख पाय। सुनत ही धावैं कपि ऋक्षाय॥
छुवैं पर्वत को हरि कहि भाय। उठावैं जस पर्वत को धाय॥
उठै वह रूस फूल सम भाय। लै आवैं गहैं नील नल भाय॥
धरैं जल पर धरतै उतराँय। इधर और उधर हठै कछु भाय॥
शान्त हो उदधि ठीक ह्वै जाय। बध्यौ पुल सवा पहर में भाय।१६५०।
नाम परताप कहा नहिं जाय। आँय तँह शम्भु संग गिरिजाय॥
परैं प्रभु लखन चरन पर धाय। कटक सब बार बार शिर नाय॥
परै चरनन में तन उमगाय। शम्भु गिरिजा दें आशिष भाय॥
कार्य सब सिद्ध होय रघुराय। कहैं प्रभु सुनिये जग पितु माय॥
लालसा एक मेरे उर आय। आपकी मूर्ति यहाँ पधराय।१६६०।
नाम रामेश्वर धरिहैं भाय। नाम हमार तो राम कहाय॥
जारी........