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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

बाम कर केश पकड़ि लें धाय। झिटकि कै महिपर देंय गिराय॥

बैठि छाती पर जावैं भाय। काटि लें नाक कान तब भाय॥

छोड़ि दें भागै अति बिलखाय। रुधिर सब तन में अस लगि जाय।२५०।

 

जानिये अग्नि देव गे आय। जाय खर दूषण ढिग चिल्लाय॥

देखि कर चीन्ह न पावैं भाय। कहै तब आपन चरित सुनाय॥

तुम्हारे जियत हमैं दुख भाय। नाक औ कान लीन कटवाय॥

श्याम बालक कहि गौर से भाय। निहारैं भगिनी यह मम आय॥

क्रोध उर में तब नहीं समाय। कहैं सब निश्चर कटक बुलाय।२६०।

 

चलो देखें हम दोनौ भाय। कहाँ से आये कौ हैं भाय॥

काल के गाल में पहुँचे आय। चलैं सब प्रभु के ढिग को धाय॥

लखैं हरि निश्चर सेना आय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥

शरासन बान सम्हारो लाय। कटक निश्चरन का आवत भाय़॥

मारि हम तुम मिलि देहिं गिराय। उठावैं राम धनुष को भाय।२७०।

 

चढ़ावैं चाप भक्त सुखदाय। करैं टंकोर जबै रघुराय॥

जाँय सब दुष्ट तबै घबड़ाय। कटक खर दूषण का गिरि जाय॥

होश नहिं रहै कहै का भाय। राम संग लछिमन चाप चढ़ाय॥

खड़े यह कौतुक देखैं भाय । घड़ी जब पांच बीति जाँय भाय॥

चेत हों सब को उठैं रिसाय। रहै आधी तन ताक़त भाय।२८०।

 

लेय आधी भय तहँ पर खाय। परैं पग डग मग चला न जाय॥

गिरैं औ उठैं चलैं फिरि भाय। मनै मन खऱ दूषण दुख पाय॥

कहै क्या पड़ी बिपत्ति यह भाय। जानि कछु पड़ौ नहीं मोहिं भाय॥

करुँ क्या धीर धरा नहि जाय। पलटि जो परौं हंसी हो भाय॥

सुनै रावण तो अति रिसि आय। यही अव सूझत और न भाय।२९०।

 

कहै सेना में हांक सुनाय। सुनो सब बीरों मम सुखदाय॥

पाँव पीछे कोइ धरय्यौ न भाय। नहीं तो होई बड़ी हंसाय॥

चलै लै सब को कहि सुनि भाय। पहुँचतै युद्ध करैं रघुराय॥

राम औ लछिमन के शर भाय। एक ते लाखन होवैं जाय॥

भरा हुंकार बीज दुखदाय। भागि कै कोइ उबरै नहिं भाय।३००।

 

हतैं सब सेना दोनो भाय। चलैं फिरि पर्ण कुटी सुखदाय॥

देखि कै सीता मन हर्षाय। प्रेम वश बोल न मुख से आय॥

हाल यह रावन जब सुनि पाय। हर्ष करि मन ही मन मुसुकाय॥

जीति को सकै बिना रघुराय। बली खर दूषण मो सम भाय॥

बैर करिहौं हठि प्रभु सों जाय। मारिहैं कर कमलन ते आय।३१०।

 

तरौं भवसागर मरतै भाय॥ सहित परिवार मनै हर्षाय॥

रचै तब रावण एक उपाय। कहै मारीच से सुनिये भाय॥

बनो तुम कपट मृगा बनि जाय। सोबरन कैसा रूप बनाय॥

जहाँ पर राम लखन सिय माय। वहाँ पर ह्वै कर निकस्यो जाय॥

देखिहैं सीता तब सुखदाय। कहैं रघुबर से बचन सुनाय॥३२०।

 

सोबरन मृग यह पकड़ो धाय। पालने योग्य प्राण पति आय॥

मिलै गर नहीं तो बाण चलाय। मारि के छाल दिहेव मोहिं लाय॥

अवध जब चलब सबै देखराय। देखि सब के तन मन हर्षाय॥

लखन यह जानि न पैहैं भाय। करैं जो चरित राम सिय माय॥

सिया हरि के उर जाँय समाय। हरैं हम माया की तब भाय।३३०।

 

श्राप मोहिं तीन जन्म की भाय। मिटी है एकै दुइ रहि जाय॥

एक का योग लग्यो अब आय। एक द्वापर में मिटिहै जाय॥

श्री सनकादिक चारों भाय। जात रहै बैकुण्ठै मुद दाय॥

श्री उर प्रेरक इच्छा भाय। दिहेन लौटारि जाय नहिं पाय॥

श्राप उन दीन्ही रिसि करि भाय। राक्षस तीनि जन्म हो आय।३४०।

जारी........