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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

करैं सेवा शत्रुहन अघाय। जाँय फिरि पंचवती सुखदाय॥

देखि बन चित् शान्त ह्वै जाय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥

कुटी एक यहँ पर लेहु बनाय। सुनत ही लछिमन हिय हर्षाय॥

बनावैं पर्ण कुटी सुखदाय। रहैं ता में तीनों जन भाय॥

वहाँ की शोभा अति सुखदाय। बिपिन कुसमय को देय भुलाय।१६०।

 

फलैं फूलैं सुन्दर सुखदाय। तोड़िये आज फूल फल भाय॥

एक शाखा के रहन न पाय। कलहि फिर देखौ मन हर्षाय॥

वही शाखा में वैसै भाय। वहाँ के पशु पक्षी सब भाय॥

बैर आपस का देंय हटाय। राम की छबि देखन हित भाय॥

कुटी के पास में बैठैं आय। लखन सिय निरखि निरखि सुख पाय।१७०।

 

डरैं नहिं धनुष बाण दिखलाय। लाय सिय कन्द मूल कछु भाय॥

तोड़ि कै सब ढिग देंय बहाय। पाय कै सब पूरन ह्वै जाँय॥

पियै जल सरिता में हर्षाय। मगन रहैं निशि बासर सब भाय॥

दरिद्री को ज्यों धन मिलि जाय। कछुक दिन बीते वँह पर भाय॥

राक्षसी शूर्प नखा एक आय। भयानक रूप बड़ी दुखदाय।१८०।

 

बाल दोउ पगन तलक हैं भाय। नगन तन दशन बड़े मूँह बाय॥

जीह नाभी तक लटकै भाय। श्रवण दोउ बड़े बड़े हैं भाय॥

एक ओढ़ै एक लेय बिछाय। कहैं लछिमन ते बचन सुनाय॥

ब्याह हमरे संग कीजै भाय। बनाओ अपनी बनिता भाय॥

करैं सेवा हम चित्त लगाय। न पैहौ ऐसी नारी भाय।१९०।

 

तीन्हू लोक फिरौ चहै धाय। तुम्हारा दुःख देखि कै भाय॥

दया मेरे उर में गई आय। आप महलन के बासी भाय॥

बदन में कोमलता अधिकाय। बिपिन के हम बासी हैं भाय॥

कार्य ये छाजै हम को भाय। लै आवैं कन्द मूल फल धाय॥

पवन सम बिलम्ब न होवै भाय। रहौ तीनो जन बैठे भाय।२००।

 

कन्द औ मूल फलन को खाय। पिलावैं ठौरै जल हम लाय॥

बीच धारा का निर्मल भाय। कहो कछु मुख ते लछिमन भाय॥

देर काहे को रहे लगाय। समय फिर ऐसा मिलै न भाय॥

 

फेरि मन में पछितै हौ जाय। तपस्वी जैसे तुम हो भाय॥

वैस ही हमको जानो भाय। काम को जीति लीन हम भाय।२१०।

 

नहीं कोइ तन पर बसन सुहाय। शान्ति सन्तोष शीलता आय॥

क्षिमा दाया सरधा अधिकाय। दीनता प्रेम सत्यता भाय॥

यही लक्षण ते सन्त कहाय। मिलेव तन पर स्वारथ हित भाय॥

होय तन सुफल लेहु अपनाय। खड़ी हौं कर जोरे मैं भाय॥

आप ही के हित तन यह पाय। दया के सागर आप कहाय।२२०।

 

दया अब कीजै हम पर भाय। अतिथि वह कहलावत है भाय॥

जौन कोइ पहले पहले जाय। रुची अनुकूल मिलैं तेहि भाय॥

नहीं तो मिटै न तन की हाय। आप सब जग दाता कहवाय॥

लेत सुधि निशिदिन हित करि भाय। मनोरथ जा को जैसी भाय॥

करत हौ पूरन मन हर्षाय। ऐस स्वामी जो जावै पाय।२३०।

 

छाड़ि सो अन्त कहाँ को जाय। करै सेवा तन मन चित लाय॥

अन्त के समय स्वर्ग सो जाय। करै छल जो कोइ उनसे भाय॥

फटै धरती सो जाय समाय। सुनैं यह बचन राम रघुराय॥

कहैं लछिमन से सुनिये भाय। राक्षसी बड़ी दुष्ट यह भाय॥

बतकही कैसी करत बनाय। काटि लेहु नाक कान उठि भाय।२४०।

 

कहेन हम तुमसे सत्य सुनाय। सुनैं जब लखन बचन अस भाय॥

चलैं क्रोधातुर चला न जाय। लिहे दहिने कर छूरी भाय॥

जारी........