॥ अथ फुलवारी भ्रमण वर्णन॥
जारी........
बाँटने से सौ गुन हो जाय। एकता ऐसी कही न जाय॥
चलैं संग दौरैं बैठैं आय। सत्यता ऐसी वँह पर भाय॥
जीव जल पक्षिन पशुन सगाय। स्वराज्य हम इसको कहते भाय॥
चोर कहिं परत नहीं दिखराय। राति औ दिन एकै रस भाय॥
खजाने पड़े खुले सुखदाय। जीव को जीव न कोई खाय।२००।
ऐसि हरि की इच्छा वँह भाय। जनक योगी ऋषिराज कहाय॥
भजन परताप बड़ा है भाय। राम अनुकूल सदा सुखदाय॥
नहीं आसक्त किसी पर भाय। सदा अनइच्छित जनक कहाय॥
भजन में मस्त रहैं ऋषि राय। धुनी अभ्यन्तर सुनते भाय॥
रूप हरदम सन्मुख सुखदाय। समाधी सहज यही कहलाय।२१०।
तार एक तार होय जब भाय। ध्यान जप संगै होतै जाय।
देय सुर मुनि नित दर्शन आय। हंसैं खेलैं संगै बतलाँय॥
कहैं यहि राज योग सब भाय। सुरति जौ शब्द में लेय लगाय॥
जाप अजपा यह है सुखदाय। चलै कर जिह्वा नैन न भाय॥
नाम धुनि रोम रोम खुलि जाय। एकता हो तब सब में भाय।२२०।
जिधर देखैं तहँ वही देखाय। गुरू से मिलत ज्ञान यह भाय॥
और कोइ नहीं सकै बतलाय। अधिक जो कहैं लिखा नहिं जाय॥
लिखत में आलस तुम को आय। चरित कहैं रनिवास का भाय॥
सुनयना लीन्ह सिया बोलवाय। जाव गिरिजा पूजन सुखदाय॥
चलीं लै संग सखी हर्षाय। आय गईं गिरिजा मन्दिर माय।२३०।
पगन दोउ धोये सखी यक आय। पोंछि साफ़ी से दीन सुखाय॥
गईं मन्दिर में शीश नवाय। बन्द चहुँ दिशि ते पट करवाय॥
झरोखन प्रतिमा परत देखाय। सखी सब जग मोहन में भाय॥
खड़ी कोइ बैठी अति सुख पाय। कीन पूजन बहु बिधि ते भाय॥
प्रेम वश मुख से बोलि न जाय। दोऊ कर माला रहीं उठाय।२४०।
बढ़ा अति प्रेम उठै नहि भाय। बड़ी कोशिश करि लीन उठाय॥
उठैं कर ऊपर को नहिं जाँय। झुकी हैं खड़ी नैन झरि लाय॥
छूटि कर माल अवनि गिरि जाय। श्याम मूरति पाषाण कि भाय॥
हँसीं औ प्रगटीं ताते माय। पकरि कै छाती लीन लगाय॥
होश कीजै सिया अति सुखदाय। मिलैं बर तुमको जो मन भाय।२५०।
खुशी सिय भईं बैन सुनि माय। परीं चरनन में तन उमगाय॥
उठीं कर जोरि बोलि नहीं जाय। भईं परवेश मूर्ति में भाय॥
चलीं सिय आईं बाहेर धाय। भेद यह और कोई नहिं पाय॥
दीन पट फेरि तुरत खोलवाय। गई सखि देखन एक फुलवाय॥
चतुर वह बड़ी सलोनी भाय। देखि कर आई रहा न जाय।२६०।
आय सीता से दीन बताय। चलौ दोउ देखौ रूप अघाय॥
सुघरता जिनकी कही न जाय। चलीं सिय लीन सखी कर धाय॥
लता की ओट देखायो जाय। देखि छबि छकीं मनो निधि पाय॥
मणी फणि की जैसे मिलि जाय। सखी सब देखि के गईं लोभाय॥
बिरह के बाण चुभे उर आय। भई मूरछा उन सब को भाय।२७०।
पड़ीं बेहोश कहा नहि जाय। राम ने सिया को देखा भाय॥
नैन से नैन मिले सुख पाय। राम के उर में सीता आय॥
सिया के उर में राम समाय। कहै लीला वँह की को भाय॥
देव मुनि नहीं सकैं बतलाय। कह्यौ लछिमन ते राम सुनाय॥
जनक की तनया यह है भाय। स्वयम्बर रचा इसी हित भाय।२८०।
जो तोरै धनुष बरै लै जाय। जनक प्रण कीन्हों है यह भाय॥
तुम्हैं हम साँची दीन बताय। लखन ने लख्यौ सिया सुखदाय॥
जारी........