॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल २० ॥ (विस्तृत)
२९४. ' ओ ँ क्ली ँ जूँ स: '
मन जप में लग जाय तब सब काम इस मंत्र से होते हैं। जो महा गरीब थे, सब धनी हो गये। फांसी पर से उतर गये। चार अक्षर का ये शिव जी का मंत्र धन, पुत्र, संकट, यश के लिये किया जाता है। ४ अक्षरी मंत्र में हल्का 'ग' बोलना चाहिये 'म्' नहीं।
२९५. सारा खेल मन का है। मन इस शरीर को चलाने वाला ड्राइवर है। अच्छी जगह ले जावेगा (तो) जीव की अच्छी गती होगी। खराब जगह ले जावेगा (तो) खराब गती होगी। मन के संगी भूख प्यास और जबान, इच्छा हैं। यह सब बड़े चालाक हैं। अच्छी चीज़ खूब खाते हैं। रूखी सूखी के लिये पेट में जगह नहीं है। ऐसे यह बदमास संगी है। बिना इनको काबू किये शुभ काम नहीं होगा। मन लगने की पहिचान है : - ठौरे (उस स्थान पर) कोई गाना बजाना करै तुम सुन न पावो - तब मन जप या पाठ में लग गया।
२९६. जप का भेद:
पहले सीता जी ने जप का भेद शिवजी को बताया। फिर सीताजी ने श्रुतिकीर्ति जी, श्री माण्डवी जी और श्री उर्मिला जी को यही उपदेश दिया। यह उपदेश राजगद्दी के १० दिन बाद सब को किया गया। फिर बारह हजार सखा जो श्री राम जी के साथ अवतरित हुऐ थे उन्हें दिया गया, वे सब इस पद के अधिकारी हो गये। फिर १० हजार सखी श्री महारानी जी के साथ जनकपुर में अवतरित हुईं। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य के घर, उनको बताया। हनुमान जी को बताया, लंका में मंदोदरी को बताया।
२९७. जप, पाठ, पूजन, कीर्तन, कथा सुनने से, सेवा-धर्म, देवगान से पट खुल जाते हैं। सारा खेल मन का है। जहाँ मन एकाग्र हुआ तहाँ प्रेम आ गया, बस काम बन गया।
२९८. भक्त भगवान के निरन्तर प्रेम में विमग्न रहने से आत्मा परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है। साधक अन्तर में ही आत्मा का साक्षात्कार (दर्शन) करने लगता है। माया के कारण जो भेद था समाप्त हो जाता है।
२९९. राम जी के विवाह का कवित्त १२ की उमर में मिला था एक ब्राह्मण आरत पांड़े के पिता छेद्दू पांडे को; उनका लड़का हमें बताया, तो हमें याद हो गया था।
पद:-
करत बरात को पयान नर वाह,
सब सुर गण आसमान देखत बहार हैं।
डेढ़ कोटि हैं मतंग और तुरंग तीस कोटि,
पालकी पचीस कोटि पैदल अपार हैं॥
भार वरदार, सवा सात कोटि उँट,
जाति सेवक समूह, पांच कोटि बाजदार हैं।
रथ सवा तीन कोटि दशरथ राऊ जी के,
साठि लाख नौ हजार सांडिया सवार हैं॥
३००. जिसका अटल विश्वास होता है, उसका कोई काम रूकता नहीं।