॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल २५ ॥ (विस्तृत)
३३१. (गुरुदेव का जन्मस्थान) गांव ईश्वरवारा जि० सीतापुर डा० (डाकखाना) सदरपुर है, तहसील सिघौली, परगना महमूदाबाद है।
३३२. दोहा:-
अपमान को सह कर, सन्मान जो करै।
अंधे कहैं सच्चा भगत, जियतै में वह तरै॥
३३३. कर्मानुसार भगवान सब को देते हैं। 'मुस्लिम चरित्र' (पुस्तक) में भगवान अबूहसन से कहे हैं - अबूहसन मेरी आज्ञा में सदा तत्पर रहना, क्योंकि मैं सदा जीता जागता हूँ। मैं जिस तरह राखंू उसी तरह रहे। वही हमारा भक्त है। तो मैं उसकी इच्छा से अधिक देता हँू। जैसे मेरा नाश नहीं, वैसे भक्त का नास नहीं है। उसे अविनाशी स्वराज्य देता हँू मैं। मुझमें उसकी सुरति लगी रहे। यही भजन है। जैसे मैं मृत्यु से परे हँू, वैसे वह हो जावेगा।
३३४. यह जीव और शरीर भगवान का है। इसलिये 'जा बिधि राखैं राम - ता विधि रहिये' के सिद्धान्त को मानने वाले, कभी किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करते। भगवान ने अपनी प्रारब्ध के अनुसार जो दिया, उसी में सुख-सन्तोष मानते हैं। जो तुम्हारा है, वह निश्चय रूप से प्राप्त होगा। इस विश्वास को हृदय में रख कर अपने कर्तव्य में आरूढ़ रहो। कर्तव्य निष्ठ, भगवान को बहुत प्रिय हैं - भाव ही मुख्य है। भाव ही समीपता है। भाव रूपी बेतार के तार से, भगवान के दरबार में क्षण-क्षण का समाचार पहुँचता रहता है। इस मशीनरी को श्रद्धा-प्रेम, विश्वास रूपी तेल में सिंचन करता रहे, ताकि उसमें आलस्य, लापरवाही और अविश्वास रूपी जंग न लगने पावे। जंग लगी और मशीन रुकी। इसके लिये जीवन पर्यन्त चौकन्ने रहना पड़ेगा।
३३५. दिली शौक वाले से ही भजन हो सकता है। तब भगवान शक्ति देते हैं।
३३६. मन बड़ा बदमास है - पानी से ज्यादा शरबत, शरबत से ज्यादा दूध पीता है। रोटी से ज्यादा पूरी खाता है। बढ़िया चीजें ज्यादा खाता है। रूखी, सूखी खाने की पेट में जगह नहीं है। चार अक्षर से ही - शिव जी के मंत्र से, तीसन हजार के मकान बन गये। अनेकों स्त्री जो पढ़ी नहीं थीं, खटिया में पड़ी पड़ी प्रेम से जप करके, सब काम बना लिये। मन लग जाय। देवता, गुरू, भगवान को पकड़ कर फिर चिन्ता न करै। भगवान दीनदयालु हैं - दीन बन जाओ।
३३७. अपनी नेक कमाई का सादा भोजन - थोड़ा खाओ, सब जीवों पर दया करो। घर में रहकर पवित्र जीवन बिताओ। जिस देवी देवता से प्रेम हो, उसका प्रेम से मन लगाकर जप पाठ करो।
३३८. किसी देवी, देवता को पकड़कर धुकुर-पुकुर करना, बड़े कायर का काम है। फिर देवी देवता सहायता नहीं करते।
३३९. हम दो पाठ 'सुखमनी साहब' के करते थे। १८ की उम्र में ४ साल घूमें हैं। एक धोती, ४ लंगोटी, १ लोटा डोर और १ सोटा रखते थे। किसी के दरवाजे नहीं जाते थे। जो पाती कड़ू न हो, या गूलर की गदिया खा लेते थे। चार-चार दिन पानी पीकर घूमते थे। बड़ा बल था। जाड़ा गरमी कुछ न लगती थी।
३४०. जै दिन का जहाँ का अन्न जल होता है - वहाँ भगवान भेजते हैं। वैसे न कोई जा सकता है न कोई ले जा सकता है।