॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल ७ ॥ (विस्तृत)
१०१. मन साधू हो जाय - साधू भये (साधू का रूप रखने से) क्या होगा?
१०२. भगवान के यहाँ खाता में नाम लिखा कर फिर गैर हाजिरी करना, भजन में आलस्य प्रमाद करना यह भक्ति नहीं है। भजन नियमित होना चाहिये।
१०३. जो इम्तहान देता है उसका मन यदि खुद खुश रहता है वह पास हो जाता है। और यदि मन उदास रहता है, तो वह फेल हो जाता है। सारा खेल मन का है।
१०४. जितने ऋषि मुनि देवी देवता हैं, सब भगवान के हुकुम से काम करते हैं। बिना हुकुम के जबान, हाथ-पांव, आँखें, सारा शरीर चल नहीं सकता है। जो कह देता है हमने किया वह अहँकारी रावन है अगर एक रोंवा भर अहंकार है, और छल है - तो कपट मारीच है। करता धरता भगवान हैं। अहंकारी और कपटी भक्त नहीं हो सकता। (वह) मौत और भगवान को भूला है।
१०५. एक माई का पद है:-
धन, पुत्र, जस से नारि नर की खोपड़ी भरती नहीं।
वासना आगे चले पीछे कदम धरती नहीं॥
१०६. बिना मन काबू भये भगवान की भक्ति हो सकती नहीं।
१०७. एक घड़ी मन लग जाय तो ५९ घड़ी की भगवान माफी देते हैं।
१०८. दर्शन करना, घर जाना, यह नहीं पूछा जाता (इनके लिये आज्ञा नहीं ली जाती)। लड़ाई, झगड़ा, मार-काट पूछा जाता है, (तो) उसे रोक दिया जाता है। रुपया खर्च होता है, हाथ पांव टूटता है। जहाँ क्रोध कसाई आया, अपना काम करके चला गया। अब तुम अस्पताल जाओ मलहम पट्टी बंधाओ।
१०९. जैसा भोजन वैसा सुरस, वैसा खून, वैसा धातु बनता है। मन को कोई रोक नहीं पाते। उसके संगी भूख पियास, जबान, इच्छा - यह बड़े बदमास हैं, चालाक हैं। यह अच्छी चीज़ खूब खाते हैं, रूखी सूखी कम खाते हैं। इसी से रोग ठीक नहीं होते।
११०. ४० दिन का अनुष्ठान जिस देवी देवता से प्रेम हो उसमें तन-मन लगा दो, बस काम हो जाय। लिखने की जरूरत नहीं है। अपना भगवान पर विश्वास राखो तब भगवान और ऋषी मुनी देवी देवता खुश होते हैं। दुनियां न जाने। लिखना तो ऊपरी काम है। यह भाड़ों (गा कर तारीफ करने वालों) का काम है।
१११. घनश्याम सरन साधू लक्ष्मन किला पर रहे। जब बीमार पड़े तो एक १८ साल का लड़का (अमीर आदमी का) भक्त था आया, सेवा करने लगा। अपने को मिटा दिया। काफ़ी दिन रहा जब खुद सख्त बीमार पड़ गया, तो बड़े भाई को तार दिया। भाई आया। उसने कहा अब तुम महाराज जी की सेवा करना, हम जाते है। बस शरीर छोड़ दिया। विमान पर बैठ कर चला गया। घनश्याम सरन महाराज जी (दादा गुरु) को बहुत मानते थे। महराज जी ने हमसे हाल बताया।
११२. शिष्य होय तो ठीक हो, नाहीं तो बेकार।
वासे तो चैला भला, जासे हो भन्डार॥
(चैला उ भोजन)
११३. जिससे कोई सम्बन्ध न हो, वह बीमार हो उसकी सेवा करना बड़े धर्म का काम है। महाराज जी ने बताया था। हम पुलिस में जाकर कह देते थे। उसे लाते सेवा करते ठीक हो जाता तो घर भेज देते, मर जाता तो सरयू में पधरा (प्रवाह कर) देते।
११४. बाबा टीकादास वैश्य के बालक थे। १६ की उमर में एक जंगल में घुस गये गोमती किनारे। १२ वर्ष किसी से न मिले। एक साफी दो लंगोटी थी। वह रोज नहाते, जंगल की जो पत्ती कड़ू न होती उसे खाते। विचित्र जीवनी है। ३० की उमर में हनुमान जी को नमक छोड़ (मिला) कर रोटी खिलाया था। हनुमान जी ने पीठ ठोंक दिया, कहा - 'तुमसे भजन ही करावेंगे'।