॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥(७)
पद:-
शिव दीन गेहि यह जान।
पूत मूत से पैदा होकर भये कपूत सपूत नहीं।
पाप करम में माते हर दम सांची कोई सबूत नहीं।
अन्धे कहैं बिना सतगुरु के जाय राम के सूत नहीं।
अन्त छोड़ि तन नर्क को जावै जियति भये मजबूत नहीं।५।
सोरठा:-
द्वेत संग में राण भजन क भोजन लेत करि जियति गयो जो।
पद:-
जाखी अंध कह सो गयो तरि।
सतगुरु करि सुमिरौ राम नाम कोइ ऐसा दूसर ढंग नहीं।
सुर मुनि सब याको ध्याय रहे धुनि सुनै एक रस भंग नहीं।
बनि कै अकेल मग जाव पेल है शांति वहाँ कोइ संग नहीं।
कहैं अन्ध शाह लै तेज रूप पावो कोइ ऐसा रंग नहीं।५।
सोरठा:-
तन मन प्रेम में पागु शरनि मरनि औतारी हो।
सतगुरु चरन में लागु
पद:-
अंधे वाह किमि गिरनि न हो॥
हटा अड़ंगा अब चोरन का सतगुरु दीन नाम का दान।
शांति कृपान से मारि भगायो एकौ नेक नहीं ठहरान।
ध्यान प्रकाश समाधी जाना खुलिगे आँखी कान।
अन्धे कहैं राम सिय सन्मुख छूटा जग दौरान।५।
शेर:-
बाकी जमा जोड़ तकशीम। जानि के बनिये ठीक मुनीम।२।
अंधे कहैं जुगुति यह जीम। तब तो मस्त बनावै मीम।४।
शेर:-
मुरशिद जिनके बड़े हकीम। तिनको देवें नाम अफ़ीम।
चढ़ैं अमल फिरि होय न धीम। छूटि जाय सब टाम औ टीम॥
शेर:-
अंधे कहैं मन भजन में जो प्रेम से देवे भगा।
पितु मातु उसके हों संग पितु मातु का वह हो सगा॥
क्या बाटे का बाकी राखे का जोड़े का किहे जमा।१।
अंधे कहैं बिना हरि सुमिरे तन से भागत नहीं तमा।२।
सतगुरु करो भेद तब पावो मिलै तुम्हारी नारि छिमा।३।
जब संतोष तात हो पैदा तब जानो मैं नाम रमा।४।