१४ ॥ श्री गौराङ्ग महा प्रभू जी ॥
छन्द:-
स्वयं सिध्द रकार जासे बिष्णु ब्रह्मा शिव बनै ॥१॥
हरि रूप हर दम हर जगह पूरन निगम आगम भनै ॥२॥
सूरति लगावै शब्द में अरु ध्यान सतगुरु का करै ॥३॥
उनमुनि से बैठैशान्त ह्वै तब रूप हरि का लखि परै ॥४॥
त्रिकुटी के ऊपर कमल दुइ दल बास जहँ ओंकार है ॥५॥
गंगा ओ यमुना सरस्वती तिरबेनि जी की धार है ॥६॥
स्नान करि मल रहित ह्वै छबि लखै जोति अपार की ॥७॥
गगन में अनहद की धुनि जहँ उठत रा रा कार की ॥८॥
शून्य में सोऽहँ पुरुष जहँ रूप रेख औ रंग नहीं ॥९॥
लय दशा का स्थान है यह, बात सब मानो सही ॥१०॥
रोम रोम से नाम निकसै, चक्र षटवेधन भये ॥११॥
कमल सातों खिले सुन्दर, मोद मुद आँनन्द छये ॥१२॥
नाम रूप में भेद नहिं कछु, जानिकै मन मानिये ॥१३॥
अभ्यास कीजै दीन ह्वै तब नाम रूपहिं जानिये ॥१४॥
सूरति लगावो शब्द में, निर्गुण सगुण को जान लो ॥१५॥
बन्धन से छूटो जगत के, यह बात मेरी मान लो ॥१६॥
दोहा:-
कर्म धर्म क्रिया करै राज योग हठयोग ।
बिना प्रेम होइहै नहीं, जीव ब्रह्म संयोग ॥१॥