२५५ ॥ एक ही बाणी चारों श्री बैकुण्ठ जी की ॥
दोहा:-
राम बिष्णु औ कृष्ण को, ध्यावै जौन सकाम।
सो मेरे आवरण में आवै, करै अराम॥
तन मन प्रेम लगाय कै धर्म करै जो प्रानि।
ते आवै आवरन मम, बैठै हिय सुख मानि॥
हरि या हरि के भक्त जेहि, मारैं सो यँह आँय।
बैठैं सिंहासनन पर हब्य अनार को खांय॥
झूलन पर नर नारि बहु झूलैं करैं किलोल।
बिन अधार झूला पड़े अनुपम अमित अमोल॥
भूषण बसन श्री गरुड़ जी नित्य पिन्हावैं आय।
छूटैं भूषण बसन जो अंतराय ह्वै जाय।५।
दोहा:-
बैकुण्ठ नाम मेरो अहै सुर मुनि सब कोइ जान।
या में नेक न फर्क है करि कै देखौ ध्यान।६।