२८३ ॥ ठाकुर सुजान सिंह ॥
शंकर जी के भक्त
(गाँव सातौं धर्मपुर, जिला फतेहपुर)
पद:-
भजिये शिवा शंभु सुखदाई।
सतगुरु से जप भेद जानि कर तन मन प्रेम लगाई।
हर दम झाँखी सन्मुख राजै शोभा वरनि न जाई।
मेटैं कठिन कुअँक भाल के सुर मुनि सही बताई।
अजर अमर हैं मुक्ति भक्ति दें कहँ लगि करौं बड़ाई।
कहैं सुजान सिंह कैलास में तन तजि बैठौ आई।६।
बार्तिक:-
कैलास का दिन और चौथे बैकुण्ठ का दिन हमारे सब के भोग के बराबर है। जब यहाँ चार हजार वर्ष बीतते हैं तब कैलास का एक दिन भक्तौं के भोग का माना जाता है। कृष्ण भगवान के लोक से हब्य अनार के दाने एक एक तोला के होते हैं वह दो दोनों में आते हैं। अनार १० सेर का होता है। ज़मीन सोने की है। जहाँ गिरा फूटा। दाने सब छिटक गये। वै गरुड़ जी तमाम रूप धारण करके जहाँ जहां भगवान का हुक्म है बाँट आते हैं। बैकुण्ठ में दिब्य बसन भूसन फरते हैं बृक्षों में। आप हि आप गिरते हैं। वै गरुड़ जी बाँटते हैं। कैलास में अन्दर दिब्य भवन बने हैं। बीच में अक्षय बट है। उसके नीचे शिवा शिव रहते हैं और सब भवनन में रहते हैं। अन्दर ठंढक नहीं है न गर्मी है। वहाँ मल मूत्र नहीं होता। सब वायू होकर रोम रोम से निकल जाता है। दोना जिनमें हब्य अनार आते हैं खाने के बाद जहाँ जमीन में धरौ तहाँ अन्तर हो जाते हैं। रोज़ बदली भूसन बसन की होती है। वह भी सब अन्तर हो जाते हैं। बड़ा बिस्तार है थोड़ा लिखा है।