२८ ॥ श्री दादू जी ॥
दोहा:-
जहां पवन की गमि नहीं रवि शशि उदय न होय ।
निः अक्षर स्वांसा रहित जानि लेव तुम सोय ॥१॥
पद:-
राम को खोजो घट में भाई ॥१॥
सतगुरु से लै शब्द भेद को तन मन प्रेम लगाई ॥२॥
अनहद बाजा कहं लगि बरनौं बाजत आनँन्द छाई ॥३॥
ररंकार धुनि रोम रोम ते हर शै से सुनि पाई ॥४॥
राम श्याम छवि वाम भाग सिय शोभा वरनि न जाई ॥५॥
हर दम सन्मुख दर्शन होते भक्तन के सुखदाई ॥६॥
कहत गरीब निवाज देव मुनि दीन होय सो पाई ॥७॥
अहंकार औ कपट जो छूटे सबै काम बनि जाई ॥८॥
नाम रूप ब्यापक है सब में शब्दहिं से लखि जाई ॥९॥
सूरति शब्द की जाप है अजपा जिह्वा नहीं चलाई ॥१०॥
मार्ग पिपील मीन के आगे विहँग मार्ग यह भाई ॥११॥
आवागमन क नाश होय तब जब यहि मार्ग से जाई ॥१२॥
श्री कलियुग की विनय मानि के रामानन्द चलाई ॥१३॥
कबीरदास रैदास को सुनिये याको भेद बताई ॥१४॥
तब से अधिक प्रचार भयो जग में सुनि लीजै भाई ॥१५॥
नाम रूप परकाश दशालय सब याही से पाई ॥१६॥
है अति अगम सुगम अति मानो मन का कारन भाई ॥१७॥
मन के हारे हार मानिये मन जीते हरि पाई ॥१८॥
कहौं कहाँ लगि अकथ कहानी सुर मुनि संतन गाई ॥१९॥
सबै पदारथ पास आपके भटकत काहे भाई ॥२०॥
करि विश्वास वचन सतगुरु के खोलो फाटक धाई ॥२१॥
बिनु विश्वास काम नहिं हुइहै प्रेम निकट नहिं आई ॥२२॥
बुद्धि की गति वहाँ नहिं पहुँचै महा ज्ञान है भाई ॥२३॥
बुद्धि त्रिगुण के परे नहीं है तीनै गुन तक जाई ॥२४॥
यह विज्ञान दशा तब जानो प्रेम से मिलत है भाई ॥२५॥
प्रेम नाम औ प्रेम रूप है प्रेमै शब्द कहाई ॥२६॥
प्रेम प्रकाश औ प्रेम दशालय प्रेमै ध्यान लखाई ॥२७॥
प्रेम प्रेम में प्रेम मिलै जब प्रेम में प्रेम समाई ॥२८॥
धन्य धन्य धनि संत हंस हैं जिन यह पदवी पाई ॥२९॥
तिनके दर्शन करै जौन कोइ तन मन प्रेम लगाई ॥३०॥
धीरे धीरे पाप नाश ह्वै जाँय सबै तेहि भाई ॥३१॥
दादू कहैं वचन मम साँचे सो नरकै नहिं जाई ॥३२॥
दोहा:-
तीनै भाग शरीर में, सर धड़ टाँगैं जान ।
पूरन रूप शरीर का, सत्य वचन परमान ॥१॥
पाँच तत्व प्रकृती सहित, कहत जिन्हैं हैं तीस ।
पाँच चोर औ तीन गुण, मन बुध्दी चालीस ॥२॥
कुण्डलिनी षट चक्र हैं, मुद्रा पाँचै जान ।
सात कमल तन में अहैं सत्य वचन यह मान ॥३॥
पाँच प्राण यामें बसैं, जीव आतमा जान ।
इड़ा पिंगला सुखमना, नाड़ी तीन यह जान ॥४॥
सुखमन में है चित्रिणी, तामें बज्रणि जान ।
ताके अभ्यन्तर धुनी, सब सुर तहाँ लोभान ॥५॥
राजयोग का मार्ग यह, जानै पुरुष महान ।
सबै देव मुनि तीर्थ हैं, राजत कृपानिधान ॥६॥
मानुष का तन पाय कै, नाम पाय गयो जौन ।
अनइच्छित हरि पुर गयो, बैठि गयो मुख मौन ॥७॥
दश इन्द्री यामे अहैं, माया अति बलवान ।
दीन भाव ह्वै हरि भजै, सटकि जाय जो ज्वान ॥८॥
जारी........