२९३ ॥ श्री जिद्दी शाह जी ॥
पद:-
राम नाम की पकड़ौ जिद्दि। जिद्दी कहैं जाय ह्वै सिद्धि॥
बातन ते ह्वै है नहिं बृद्धि। जैसो उड़त आकाश में गिद्धि॥
अमल करै पावै सो जान। वाके खुलि जांय आंखी कान॥
मुरशिद के जो चरनन चूमै। निर्भय ह्वै वह खलक में घूमै॥
सच्चा पीर फ़कीर वही है। कितनौं मारौ कहत सही है।५।
ऐसा मुरशिद दिल दरियाई। जाको मिलै वही बनि जाई।
जिद्दी कहैं अपढ़ हौं भाई। जो जाना सो दीन लिखाई।७।
बार्तिक:-
गीध अकाश में उड़ते हैं अपने खाने की खोज में। उनकी निगाह सौ कोस तक जाती है। जहां कहीं मुर्दा पशु, उसे डांगर ढोर कहते हैं, पड़ा होता है, ऊपर से वहां पहुंच जाता है, और खाने लगता है।
ऐसे ही झूठे भक्त बातें सिखकर जनता को सुनाते हैं और अपना उस रीति को जानते नहीं हैं। मान बड़ाई में मस्त रहते हैं। खाने-पीने-कपड़े-पैसे को आनंद मानते हैं। अपनी मौत और भगवान को भूले हैं। अन्त में सब पकड़ जाते हैं। कर्म अनुसार दुःख सुख भोगते हैं।