४९२ ॥ ईश्वरी नाऊ श्रीवास्तव्य ॥
पद:-
इसुरी कहैं इस तन से सतगुरु करिके हरि आराधिये।
काबू में होवैं असुर सब हर समय करत उपाधिये।
सूरति के संग में मन को लै चलि नाम में गहि बांधिये।
धुनि ध्यान लै परकाश हो अपना खज़ाना साधिये।
श्याम राधे रहैं सन्मुख कर्म दोनो रांधिये।
सुर मुनि मिलैं अनहद सुनो मेटौ जियति भव आंधिये।६।