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५५३ ॥ श्री हनुमान देई माई रैदासिन ॥

पद:-

संसकारो की क्रिया जिसने नहीं जियतै करी।

वह हो नहीं सकता जहां से मान लो यारों बरी।

चक्करों से खुश्क है मिलती नहीं उसको तरी।

सतगुरु जिसे मिलता नहीं कैसे बनै वह जौहरी।

नातवां है भूख से पासै में है वस्तू भरी।५।

 

तन मन औ प्रेम लगाय सूरति शब्द पै जिन नहि धरी।

धुनि ध्यान नूर समाधि में तब तक भला कैसे परी।

अनहद न घट में सुन सकै पावै न अमृत की झरी।

सुर मुनि के संग में बैठी के किमि सुनै भाखै हरि हरी।

प्रिय श्याम जग पितु मातु की किमि लखि सकै जोड़ी खड़ी।१०।