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३०२ ॥ श्री चटपट शाह जी॥

(अपढ़, रामकोट, सीतापुर)

 

पद:-

आरी आरी सुर मुनि बैठे बीच में राजैं षट् झांकी।

छबि सिंगार छटा की शोभा हरदम सन्मुख है टांकी।

देखत बनै कहै को मुख से शारद शेष गये थाकी।

जिन जाना ते जियतै तरिगे धनि धनि उनके पितु माँ की।

सतगुरु जिनको भेद बतायो प्रेम भाव में गे पाकी।

चटपट कहैं भजौ निशिवासर नहीं तो मृत्यु आय फाँकी।६।

 

दोहा:-

सूरति शब्द में औंगि कै जिन जियतै लियो जान।

चटपट कह तन छोड़ि कै पहुँचे सुख की खानि॥

 

चौपाई:-

सबसे बड़ा औ सब से छोट। वही भजन की हैं हम ओट।

चटपट कहैं लीन पी घोटि। षट् रुपन तब लीन अंगोटि।

शिर पर कर धरि कै दिया पोटि। तब चरनन पर हम गये लोटि।३।