॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल ५ ॥ (विस्तृत)
७५. व्यास जी ने भागवत में परोपकार का बड़ा महत्व कहा है। ऐसा दूसरा धर्म नहीं है।
७६. भजन करना तमाशा नहीं है। जियतै (जीते जी) मर जाना पड़ता है, तब जियतै तर जाता है। तब वह जियतै सरन (भगवत् शरण) हो जाता है।
७७. सत्संग - जिसका मन काबू हो, ध्यान में बैठे, भगवान प्रकट हों, सब ऋषि मुनी देवता, भगवान का जस तुमको सुनावैं उसे सत्संग कहते हैं। महासत्संग - तुमसे भगवान से बातचीत हो।
७८. यह तो दुनियां को खुश करने के लिये पढ़ि सुनि लिखकर कंठ (रट) कर के सुनाते हैं। अपना मन काबू किये बिना आंखी-कान नहीं खुलते - सब (संसार के बंधन में) पकड़ि जावेंगे।
७९. जो पढ़े नहीं हैं - भगवान में श्रद्धा-विश्वास है, गीता-रामायण धरे हैं, धूप आरती भोग लगाते परिक्रमा दंडवत करते हैं। सब देवी देवता भगवान के साथ रामायण गीता से निकल-निकलकर (उन भक्तों से) बात करते हैं। फिर उसी में समां जाते (हैं)। बहुत देखा 'लाम-लाम' करते हैं, 'छीतालाम-छीतालाम' करते हैं। उनको दरसन होते हैं। यह सब आँखिन देख चुके हैं।
८०. जो विद्वान हैं, शुद्ध शब्द उच्चारण करते हैं - भगवान में शुद्ध भाव नहीं है। इसी से द्वैत (अपना-पराया का भाव) उनको छोड़ता नहीं है।
८१. द्वैत छूटे बिना कुछ नहीं होगा। हम, हमार परिवार, नात भाई का काम बने, वे नीक (अच्छे) रहैं, और (दूसरों को) चाहे जो हो - यही द्वैत है।
८२. जब हम घूमते थे एक गाँव में १०-१५ मूर्ति (आदमी) थे। मंगलवार को एक चौकी पर कपड़ा बिछाकर (तुलसी दास जी लिखित) विनय-पत्रिका धरे कीर्तन करते थे।