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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल ६ ॥ (विस्तृत)


८६. हमें किसी संत ने लिखाया है: 
दोहा:-
धन मद, बल मद, रूप मद, विद्या मद यह चारि। 
भव सागर की वारि में, पकड़ि देत हैं डारि॥ 
(वारि उ जल) 

८७. दीन बनो। कोई थूके मूते, रंज न हो - तब भजन हो सकता है। यह भजन की कुन्जी है। तभी (दीन नहीं बनने पर) कुछ होता नहीं। कोटिन (करोड़ों) में कोई (एक) चल पाता है। 

८८. सब कुछ खाने से भजन न हो सकेगा। 

८९. तप धन गुप्त रक्खे, बताया तो नष्ट हो जावेगा। 

९०. जिसकी बुद्धि बहुत चंचल है, जो स्वभाव पैदायसी (जन्म से) पड़ा है यह छुटना मुश्किल है। चाली के चरित्र में कितना लिखा दिया गया है। भगवान का तुम्हें डर नहीं है। वहाँ सब हिसाब लिखा जाता है। मौत सिर पर खड़ी है। हर समय घात लगा रही है। समय पर ले जावेगी, छोड़ेगी नहीं। तब होशियारी नहीं चलेगी। 

९१. हमसे कितना तुमने उपदेश पद लिखा पढ़ा है। हम क्या करैं, सरबत नहीं है जो घोरकर पिला दें। सिद्धों के वाक्य लिखना औरौं को सुनाना, उनको गोस्वामी जी ने वंचक भक्त कहा है। गौरांग जी कृष्ण भगवान थे - वे कह गये हैं, नामापराध वाले की गती नहीं होती - जो पढ़ता, सुनता, लिखता है, उस पर चलता नहीं, दुनियां को रिझाता है। दुनियां अंधी है। 

९२. जो भगवान ने चित्रगुप्त से लिखाया होगा, वही होगा। जिसका ईश्वर पर भरोसा है, उसका भगवान काम खुद करते हैं, मनुष्य क्या कर सकता है? ईश्वर जो चाहता है वही उसी की इच्छा से होता है। भक्त अपना मन उधर लगाये रहता है, वही सच्चा भजन है। 

९३. महाराज (दादा गुरु) कह गये हैं - कर्म से भ्रष्ट, कर्म से श्रेष्ठ। कर्म किये बिना कुछ न होइ। जिसका अगाध प्रेम हो जाय, उसके लिये कोई नियम नहीं। जियतै मर जाना पड़ता है। 

९४. एक साधू, तीन सौ बरस के, सरजू किनारे घूमा करते हैं, गुप्तार घाट से रामघाट तक। उनके हाथ पैर में अंगुली नहीं है। एक ज़मींदार को किसी साधू ने बता दिया था। वह (ज़मींदार) सच्चा प्रेमी था। साधू सरजू किनारे बैठे पैर धोते थे। वह चरन पकड़ लिया तो कहा - राम राम, तुमने कोढ़ी को छू लिया। ठाकुर ने कहा हमें एक साधू ने बताया था। हम दर्शन को आये हैं। तो कहा, क्या चाहते हो? तो कहा - जब हमारी इच्छा हो दर्शन दे देना। तो कहा, अब तुम जाव (जाओ), किसी से न कहना। हमसे यही कहा - हमारे पास किसी को न लाना, हम सबको नहीं मिलते हैं, जब भगवान का हुकुम होता है, तब मिलते हैं। खूब मोटे ताजे हैं, पुराने कपड़ा कमर में लपेटे हैं। 

९५. केवट ने कछुआ की पीठ में पानी लाकर पहले रामजी के चरण धोकर पी लिया फिर सीता जी के चरण धोये फिर लक्ष्मणजी के चरण धोये। 

९६. जब तक दसा मजबूत नहीं होती, तब तक ऐसा होता है। ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, लय दसा सुधरती है। तब समझ में आ जाता है। यह दसा पहली ऐसे साधकों को होती है। 

९७. हम पहले फल छील कर खा कर देख लेते तब भोग लगाकर महाराज जी को देते थे, अगर खराब हो तो भगवान नहीं पाते थे। छिलका तो आदमी को भी नहीं पसन्द है। 

९८. हाथ पैर धोकर पूर्वामुख मौन होकर भगवान का आवाहन भोग लगाकर भोजन प्रसाद पावै। 

९९. तुम घर से बाहर जाकर मन ठीक नहीं कर सकते। यह लोग और सब दु:खी होंगे। वह दु:ख का तार तुम्हें गिरा देगा। अपने घर में बैठ कर मन से जबरदस्ती लड़कर उसे काबू करौ नहीं तो कुछ न होगा। मन से हार जाने से घोर नरक होता है। 

१००. यहाँ तो ऐसे जीव हैं - माँ बाप को छोड़कर आये। उन्हें मरने पर नरक होगा।