॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल १९ ॥ (विस्तृत)
२७६. हाथ पैर धोकर पूर्वामुख भोजन करो।
२७७. मौन होकर भोजन (भूख से कम) करे।
२७८. भगवान का आवाहन, भोग लगाकर भोजन करै।
२७९. जो बताया जाय (उस पर) चलने लगे। सब जीवों पर दया करो, भगवान सबमें हैं। बिना दया धर्म, सेवा और सहन शक्ति लाये भजन में मन न लगेगा। जिसको भजन करना हो थोड़ा खाये। भगवान शक्ति देंगे।
२८०. समय, श्वांसा, शरीर भगवान का है। जो अपना मानते हैं वह मौत और भगवान को भूले हैं।
२८१. भीतर के भाव से हम और भगवान खुश रहते हैं। ऊपर का ढोंग हमें और भगवान को पसन्द नहीं।
२८२. अच्छा भोजन, अच्छे कपड़े, अमीरों का संग साधक को नीचे गिरा देता है।
२८३. जब मन अच्छा भोजन खाने को मांगे तब खराब भोजन देना। नहीं तो अच्छा-अच्छा खवा कर तुमको गिरा देगा।
२८४. कबीर जी ने कहा है:
आठ पहर साठौ घड़ी ठाकुर पर ठकुराइन चढ़ी।
यानी जो ररंकार की धुनी हो रही है, उस पर सुरति लगी रहै। आपस में मिल गईं, जैसे जल और जल तरंग। ध्यान जारी हो गया, सब लोकों से उसकी धुनी हो रही है। उस तार को पकड़ कर जीव आता है। इसके बारे में बहुत लिखवाया गया है।
२८५. एक बार तपस्वी जुन्नुन को रोते देख किसी ने उसका कारण पूछा - वह बोले, गत रात मैंने एक स्वप्न देखा। कोई कह रहा था - कि अपने रचे हुए सब मनुष्यों के आगे मैंने संसार रक्खा। उसमें से हज़ार में से नौ सौ उस संसार को ग्रहण करते हैं। सौ उसका त्याग करते हैं। उस सौ त्यागियों के सामने स्वर्ग की लालसा रखता हूँ। तो नब्बे स्वर्ग के लोभ में आ जाते हैं। केवल दस उसकी उपेक्षा करते हैं। उनको नरक का भय दिखाता हूँ तो नौ डर कर भाग जाते हैं। केवल एक स्थाई रहता है। तात्पर्य यह है - कि हजार में से केवल एक ऐसा होता है जो संसार की माया, स्वर्ग की लालसा, नरक भय से भयभीत नहीं होता है। वही मुझे पाता है।
२८६. सारा खेल मन का है। पुण्य से भोग, पाप से रोग। जो जैसा काम करता है, वैसा स्वप्न देखता है। ईश्वर में लगने से कर्म का लिखा कटता है। वैसे नहीं कटता। जहर के फल बोएं तो जहर ही पैदा होगा।
२८७. (ऋषि) सब कह गये हैं। उस पर चलने वाले बहुत कम हैं। इसी से भगवान दूर रहते हैं। जब यह बातों पर मन लग जाय, तब भगवान पासै हैं। इसी शरीर से जिन्दगी में मिल जाते हैं। तब शरीर छूटने पर पास रखते हैं। आना जाना बन्द हो जाता है। किसी की बुराई मत करो। जो करेगा वह भोगेगा। तुमको अकेले जाना है। नेकी बदी साथ जावेगी। उसी रीति से जन्म मरन होगा।
२८८. हमारे यहाँ पुस्तक (ग्रन्थ) में दो हजार नाम हैं। उसमें सब जाति के भक्त हैं। मुसलमान सात सौ हैं। रंडी भक्त भई (हुई) हैं। उसमें बहुत अजर-अमर हैं।
२८९. लोग बड़े-बड़े भन्डारा करते हैं, और जो सुखी हैं उनको निमंत्रित कर भोजन कराते हैं। उसके द्वारा अपना राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध करते हैं। परन्तु गरीबों और बच्चों को खिचड़ी खिलाने में पुण्य है। बड़े-बड़े भन्डारे में बड़ा खरचा भी होता है। कोई कोई दिखावे के लिये भी ऐसा करते हैं। ऐसा भन्डारा सबके लिये सुलभ भी नहीं होता।
२९०. मन लगता नहीं। मन लड़का, घर, स्त्री, धन में लगता है कि नहीं? वही मन भगवान में लग जाय। भगवान की शौक होने से सभी शौक मिट जाती हैं।
२९१. खराब शब्दों के रूप काले होते हैं और नंगे होते हैं। जहाँ तुम्हारे मुँह से निकले कि रोकर कहते हैं, तुम अनमोल नर शरीर पाकर अपने मुँह से हमें ऐसा बनाकर निकाला। श्राप देकर अन्तर होते हैं। शुद्ध शब्द सिंगार किहे बड़े सुन्दर होते हैं। जहाँ मुँह से निकले तो हँसते हुऐ आशीर्वाद देते हुए अन्तर होते हैं। यह लिखाया गया है कि अशुद्ध शब्द जो साधक सुनता है, वह उसके अन्दर प्रवेश हो जाते हैं, और उसकी बुद्धि उलट देते हैं। दिमाग खराब कर देते हैं क्योंकि वह साधक कच्चा है। अगर साधक सिद्ध हो तो उसके अन्दर नहीं जा सकते। शुद्ध-शब्द सुनने से साधक के हृदय में बल बढ़ता है। वे सब बड़े पवित्र हैं। अन्दर पहुँचकर अपना प्रभाव जमा देते हैं। नीचे गिरने नहीं देते। इस पर बहुत लिखाया गया है। जो इतने पर अमल करै तो सुधर जाय। जहाँ अशुद्ध शब्द कोई कहता हो, वहाँ से साधक उठ जाय नहीं तो साधक गिर जायेगा। अभी उसके आँखी कान नहीं खुले हैं। वह दूसरे से सुनी बात कहेगा।
२९२. जिसकी बातें होंगी, वह कसूर नहीं किये है, तो उसे दुःख होगा। कहने वाले पर असर आवेगा, बस वह गिर जावेगा।
२९३. भजन-ध्यान के अभ्यास का स्थान:
तखत बराबर जगह हो। सफाई की जरूरत है। उस जगह कोई जावे नहीं। देवी-देवता मिलते हैं। पेट साफ रहे, सादा सूक्ष्म भोजन करै। भजन करने वाले को सहनशक्ति की जरूरत है। साधक घूर हो जाय। चाहे कोई कुछ कहे - गाली दे या मारे पीटे, बेखता बेकसूर कोई चार बात कहे, हाथ जोड़ दे।