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३० ॥ श्री कबीरदास जी ॥

जारी........

सतगुरु से लै शब्द को नाम रूप सब लेय ॥८२॥

सुनना नाम की धुनी है पढ़ना देखौ रूप ॥८३॥

पाठ शब्द लेना अहै शून्य में नाम न रूप ॥८४॥

लिखना तन में जात लिख भीतर बाहर एक ॥८५॥

सब में वही दिखाइ है फरक परै नहिं नेक ॥८६॥

अन्दर मूरति पूजि कै मन स्थिर करि लेहु ॥८७॥

तब बाहर की मूर्ति में वही मूर्ति लखि लेहु ॥८८॥

अमित भानु परकाश हो तब जानौ सब बात ॥८९॥

तब मन का माला फिरै कर का छूटै तात ॥९०॥

कहना तब उसका फवै जो या विधि को जान ॥९१॥

यह अध्यात्म ज्ञान है जानहिं पुरुष महान ॥९२॥

कह कबीर साधन करौ खोजौ सतगुरु भाय ॥९३॥

राम भरोसा सत्य गहि बैठे क्यों अलसाय ॥९४॥

जा को देखैं काम जसि ताको तैसेहिं देंय ॥९५॥

करमन के अनुसार हरि सब जीवन सुधि लेंय ॥९६॥

नाम रूप परकाश लय जब जावै कोइ पाय ॥९७॥

ज्ञान अगिन में शुभ अशुभ कर्म नाश ह्वै जाय ॥९८॥


छन्द:-

यह खेल सच्चा सुनो बच्चा सब इसे नहिं जानते ॥१॥

है अगम और अथाह सुर मुनि अकह जिनको मानते ॥२॥

भेद पावै कौन बिधि कोइ वेद शास्त्र प्रमानते ॥३॥

सतगुरु लखावैं दरस पावैं मगन हैं वसुयाम ते ॥४॥

हर जगह हैं मिलते नहीं सुनिये कपट अभिमान ते ॥५॥

तन मन ते प्रेम लगाइये तुम जगत पति श्रीराम ते ॥६॥

धुनि रोम रोम हो रूप सन्मुख प्राणों के हैं प्राण ते ॥७ ॥

छूटा द्वैत का भाव नहिं घटि घटि की हैं हरि जानते ॥८॥

आती शरम तुमको नहीं क्यों अपनी अपनी तानते ॥९॥

पाओगे हरगिज़ तुम नहीं पढ़ि सुनि के अन्धे ज्ञान ते ॥१०॥

चित्त वृत्ति एकाग्र करिकै देखिये फिर ध्यान ते ॥११॥

साधन को करके सिध्द तब उपदेश करिये ज्ञान ते ॥१२॥

तब पढ़ना सुनना सत्य है मिलि लीन जब भगवान ते ॥१३॥

अगनित जनम का चक्र चलता छूटिगा हरिनाम ते ॥१४॥

लय दशा की प्राप्ती हुई जहँ ज्ञान मान भुलानते ॥१५॥

आतम व परमातम मिले आपै में आप समानते ॥१६॥

अब रह्यो बाकी कछु नहीं कहि दीन श्री गुरु ज्ञानते ॥१७॥

शिष्य रामानन्द स्वामी का जगत सब जानते ॥१८॥

जे भजैं राम क नाम हरदम हैं प्रिये मम प्रान ते ॥१९॥

जरि गये उनके कर्म शुभ औ अशुभ अग्नी ज्ञान ते ॥२०॥

है योग अग्नी अति प्रबल जे जानते ते मानते ॥२१॥

आवागमन नहिं होय उनका बैठि जाहिं बिमान ते ॥२२॥

परकाश अगनित सूर्य के सम जहँ निछावर मानते ॥२३॥

सत लोक वह परलोक वह साकेत वह हम मानते ॥२४॥

अमरपुर, सुख पुर वह प्रभु पुर, अचलपुर हम जानते ॥२५॥

हैं आप ही सब कहत समुझत क्या कबीर बखानते ॥२६॥


छन्द:-

अद्वैत बादी बनत हैं पढ़ि सुनिके चरचा ठानते ॥१॥

मानुष क तन हरि ने दिया अनमोल नहिं तेहि जानते ॥२॥

क्या वसन भोजन भोग में सुख प्रेम तन मन मानते ॥३॥

साधू कहाते हैं वही जो चलत अकड़े शानते ॥४॥

क्या वाह वाह में भूलिगे स्वामी बने अज्ञानते ॥५॥

बनि ब्रह्म चेला करत हैं नहिं ब्रह्म को पहिचानते ॥६॥

धोखे में बनिगे ब्रह्म हैं यमराज केर गुलाम ते ॥७॥

ऊपर ते कथते ज्ञान क्या हैं टका प्यारा प्रानते ॥८॥

ऐसे पखण्डी बहुत बनिगे धन हरन खुब जानते ॥९॥

जारी........