६६ ॥ श्री महात्मा मूरखदास जी ॥
जारी........
वीना सब साजन का राजा मध्य में ताहि बजाई ॥९॥
जल तरंग मौहर नर सिंहा औ करनाय सुहाई ॥१०॥
विलकर औ मुरचंग पटह धुनि डण्डताल झनकाई ॥११॥
डमरू घंटा तरुही नगारा वीन कपाल सुहाई ॥१२॥
सारंगी करताल बजत तहं इस्तराज सुखदाई ॥१३॥
झाँझ पखाउज औ तम्बूरा लकरिन धुनि चटकाई ॥१४॥
दारा एकतारा औ चिकारा ब्रह्म कुंडली आई ॥१५॥
सुवर्ण कलस जटित मनि बाजैं गमगमात धुनि भाई ॥१६॥
नूपुर छम छम बाजत हैं सारोज की धुनी सुहाई ॥१७॥
डहँकी की धुनि गमगमात तहँ नागफनी लखिपाई ॥१८॥
विजयघंट अरू वंश बजत तहँ झंझनाय भन्नाई ॥१९॥
अलगोजा धुनि मधुर सुहावनि सप्त सुरन ते गाई ॥२०॥
बिगुल कि धुनि केकी कुहकनि जिमि बोलत आनंद छाई ॥२१॥
हाथन पर तहँ ताल उठत तड़पड़ तड़पड़ सुखदाई ॥२२॥
जिन बाजन को हम चिन्हेन रहै उनके नाम लिखाई ॥२३॥
औरे बाजन चीन्हि न पायन चहुँदिसि दृष्टि घुमाई ॥२४॥
यह आनन्द मिलै निसि वासर ध्यान कि बात बताई ॥२५॥
ताल सुरन गति तहँ सम जानौ आपै आप रिझाई ॥२६॥
अनहद बाजन हद्द नहीं है को मुख से कहि पाई ॥२७॥
छइउ राग छत्तीस रागिनी मय परिवार सुहाई ॥२८॥
सुन्दर रूप मनोहर सब हैं सूरति हिये समाई ॥२९॥
गावत हरि के चरित मनोहर सो सुख वरनि न जाई ॥३०॥
शेष गनेश सरस्वति शारद शम्भु काग खगराई ॥३१॥
देखैं सुनैं कहैं का मुख से तन मन हिय हुलसाई ॥३२॥
ऋषि मुनि देव सुनैं देखैं सब मुख से बोलि न जाई ॥३३॥
हरि दरवाजे की नौबति यह लीन्हेउ सबै लुभाई ॥३४॥
देखै सुनै जौन कोइ प्रानी सो राजा ह्वै जाई ॥३५॥
तिल के ओट पहाड़ छिपा है सतगुरु दीन्ह लखाई ॥३६॥
अचरज की यह बात बड़ी है बिन्दु में सिन्धु समाई ॥३७॥
राई का परबत हो पल में परबत की हो राई ॥३८॥
सब में सब से परे हैं स्वामी जिन यह खेल वनाई ॥३९॥
आप को मेटै दीन भाव ह्वै आपै आप लखाई ॥४०॥
शून्य भवन में लय जब ह्वै गै सुधि बुधि सबै हेराई ॥४१॥
जहँ नहिं रूप रेख रंग कछु है सोई शून्य कहाई ॥४२॥
भयौ प्रकाश यहाँ तक जाना फेरि जान नहिं पाई ॥४३॥
कबहूँ बिन परकाशै पहुँच्यौ शून्य भवन में जाई ॥४४॥
निर्विकल्प का ध्यान ए जानौ हरि इच्छा ह्वै जाई ॥४५॥
सब का मालिक शब्दै जानौ जो या को पतिआई ॥४६॥
जियतै मुक्ति भक्ति मिलि जैहै आवागमन नसाई ॥४७॥
नाम रूप है स्वयं राम का लीला धाम बनाई ॥४८॥
देखौ नाना चरित मनोहर रामै सब में भाई ॥४९॥
वैर भाव सब छूटि गयौ मम सत्य पदारथ पाई ॥५०॥
आतम परमातम जब चीन्हों आप में आप समाई ॥५१॥
पूरा शूर फकीर सोइ है जिन सब फिकिर मिटाई ॥५२॥
संत अमल करि विमल होंहिं तब शून्य शिखर चढ़ि जाई ॥५३॥
मीन पपील के परे मार्ग यह विहँग मार्ग कहलाई ॥५४॥
पानी पवन कि गति कछु नाहीं रवि शशि वहां न जाई ॥५५॥
स्वांसा सुरति कि पार की बातैं अगम अथाह कहाई ॥५६॥
वेद पुरान कुरान करै का कहन सुनन नहिं आई ॥५७॥
सूरति शब्द में लीन होय तब पहुँचै वहँ पर जाई ॥५८॥
सोऽहं रूप ते रहत प्रभू तहँ जातै देत सोवाई ॥५९॥
रूप अहै औ रूप नहीं है लीला जानि न जाई ॥६०॥
जारी........