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६६ ॥ श्री महात्मा मूरखदास जी ॥

जारी........

महाशून्य में नाम को अपनी इच्छा ते दियो पठाई ॥११२॥

महाशून्य ते शून्य में आयौ फेरि गगन में आई ॥११३॥

गगन ते फेरि त्रिकुटी पर आयौ रेफ बिन्दु बनि जाई ॥११४॥

त्रिकुटी ते फिरि कंठ में पहुँचो कंठ से हिरदय आई ॥११५॥

हिरदय से नाभी में जाकर बैठि गयो फिर भाई ॥११६॥

नाभी ते सब तन कियो वेधन रोम रोम धुनि छाई ॥११७॥

आप अनन्त रूप धरि स्वामी अपनै खेलत भाई ॥११८॥

हरि की लीला अकथ अगम है चौपट सब चतुराई ॥११९॥

भजहु नाम तन मन अर्पन करि रू प अनूप दिखाई ॥१२०॥

आठों पहर नाम जो सुमिरै सो कछु जानै भाई ॥१२१॥

पढ़े सुने से होय कछु नहिं सांची बात बताई ॥१२२॥

जैसा जाको संसकार है वैसे ताहि सोहाई ॥१२३॥

वैसे तन मन ते वह करि है कौन सकै समुझाई ॥१२४॥

समय समय पर काम होत सब कह्यो देव मुनि गाई ॥१२५॥

यहि के आगे कवनि बात अब विरथा दोष लगाई ॥१२६॥

कबहूँ रवि शशि तारे चमकैं कौंधा सरस दिखाई ॥१२७॥

सिंह समान शब्द हो कबहूँ हा हा कार सुनाई ॥१२८॥

ज्योति ते कबहूँ आवाज होत है गोला के सम भाई ॥१२९॥

कहौं कहाँ तक हद्द नही है सुर मुनि अकह बताई ॥१३०॥

मूरख दास कहैं कर जोरे खोजौ सतगुरु धाई ॥१३१॥

श्रीगुरु निर्भयदास हमारे जिन किरपा हम पाई ॥१३२॥


दोहा:-

आपै ताली कुलुफ हैं, आपै बने किंवार ।

आप आप को जानते, आपै खोलन हार ॥१॥

चौबिस घंटा सात दिन बारह महीना जान ।

राम नाम सुमिरन करहु सतगुरु से लै ज्ञान ॥२॥

काल सदा ताकत रहै जो सब का महिमान ।

हरि विमुखन को पकरि कै तुरत निकारै प्रान ॥३॥

नरक में डारै जाय कै देय बहुत ही त्रास ।

हाय हाय चिल्लाँय तब, और न कोई पास ॥४॥

बिना नाम सुमिरन किये पावो छुट्टी नाहिं ।

मूरखदास की विनय यह, मानि लेय ते जाहिं ॥५॥

एकै नाम ते नाम सब एकै रूप ते रूप ।

एकै अगम अनूप हैं एकै सब का भूप ॥६॥

आपै आप दिखात हैं आपै आप क खेल ।

आपै आप को जानते आपै आप अकेल ॥७॥

रूप रेख रंग कछु नहीं है रँग रूप औ रेख ।

जो जानै सो मानिहै सुर मुनि संतन लेख ॥८॥

लिखत लिखत सुर मुनि थकै तहूँ न पावै भेद ।

होय अखेद अभेद जो सो पावै कछु भेद ॥९॥

द्वैत भाव को छोड़ि कै रहै एक रस जोय ।

बैठि जाय मुख मोड़ि कै नाम रूप तेहि होय ॥१०॥

साँचे गुरु से जानि कै तन मन प्रेम लगाय ।

राम नाम सुमिरन करो आवागमन नशाय ॥११॥

मूरखदास कि विनय यह सब से शीश नवाय ।

अनुचित जो कछु हम कहेन माफ होय मम भाय ॥१२॥