९५ ॥ श्री सुदर्शन चक्र जी ॥
दोहा:-
तिल भर खाली है नहीं, जहाँ रकार न होय ।
रूप अहै अरु रूप नहिं, जानि लेय दुइ खोय ॥१॥
पढ़े सुने से ना मिलैं, मिलैं गुरु के द्वार ।
सत्य वचन मम मानिये, यह साँचा दरबार ॥२॥
दोहा:-
तिल भर खाली है नहीं, जहाँ रकार न होय ।
रूप अहै अरु रूप नहिं, जानि लेय दुइ खोय ॥१॥
पढ़े सुने से ना मिलैं, मिलैं गुरु के द्वार ।
सत्य वचन मम मानिये, यह साँचा दरबार ॥२॥