९६ ॥ श्री स्वामी रघुनाथदास जी महाराज ॥
दोहा:-
उत्पति पालन प्रलय जो, सब रकार ते होय ।
ध्यान समाधी धारना, और न दूजा कोय ॥१॥
सोरठा:-
महा मंत्र का तेज, रूप सदा सन्मुख रहै ।
मिटै भेद अरु खेद, गुरु किरपा ते तब लहै ॥१॥
चौपाई:-
रोम रोम धुनि उठत नाम की, सत्य कहौं मैं राम नाम की ॥१॥
इस रहस्य को सोई पावै, द्वैत भाव उर में नहिं लावै ॥२॥
राम सिया सन्मुख छबि छावै, जब सुर मुनि नित लखि हरखावै ॥३॥
कहैं दास रघुनाथ पुकारी, तन तजि सो साकेत सिधारी ॥४॥
दोहा:-
नाम रूप परकास लै जियतै में जो जान ।
सोई सच्चा सन्त है जन रघुनाथ बखान॥१॥