१४२ ॥ श्री पवन देव जी ॥
दोहा:-
मन खींचो गुरु ध्यान करि सूरति शब्द लगाव ।
जीभ नैन हालै नहीं यह अति सहज उपाव ॥१॥
शान्त चित्त बैठै रहौ खुलै शब्द रंकार ।
तब कबहूँ नहिं मिटि सकै आठों पहर पुकार ॥२॥
नित दर्शन हरि के मिलैं सुनो वचन मम कान ।
अन्त समय साकेत को जाओ बैठि विमान ॥३॥