१४१ ॥ श्री अङ्गद जी ॥
दोहा:-
राम नाम को सुमिरि कै सभा में रोप्यौ पाँव ।
बड़े बड़े योधा तहाँ बैठे ठाँव के ठाँव ॥१॥
जुटे वीर पग नहिं टरै रावन उठो रिसाय ।
मुकुट गिरे तब मैं लियो प्रभु ढिग दियो चलाय ॥२॥
धाय पवन सुत ने लियो धर्यो प्रभू अगार ।
अति प्रकाश मणि जड़ित थे भयो तहाँ उजियार ॥३॥
तब मैं रावण से कही मम पद गहे न होय ।
जाय गहो प्रभु के चरण सब कारज तब होय ॥४॥
वै हैं दीन दयाल प्रभु दीनन के महाराज ।
तिनकी शरनि में जो परै ताको होवै काज ॥५॥
ऐसा नाम प्रताप है जो जानै सो धन्न ।
सत्य वचन मैं कहौं यह तिनपर प्रभु परसन्न ॥६॥