१९८ ॥ श्री द्रोणाचार्य जी ॥
दोहा:-
कुरुक्षेत्र में युध्द भइ, तहँ पर लड्यों अघाय ।
शरीर छोंड़ि हरि ढिग गयों, सो सुख कह्यो न जाय ॥१॥
दक्षिणायन तब सूर्य थे, उतरायन तब नाहिं ।
या को भेद सुनौ अबै, जानि लेहु मन माहिं ॥२॥
दाहिने सुर में सूर्य हैं, बायें सुर में चन्द्र ।
या के बिन जाने सुनो, रहै सदा मति मन्द ॥३॥
चन्द्र गैल से जाय जो, सो आवै फिरि लौटि ।
सूर्य गैल से जाय जो, सो नहिं आवै लौटि ॥४॥
भीषम जी योगी हते, उनको थी एक शाप ।
या से उतरायन लियो, भोग भोगि कै आप ॥५॥
योग जुगुति अति कृपा करि, जो गुरु देंय बताय ।
तब तनकौ मुश्किल नहीं, सीधे हरि ढिग जाय ॥६॥
श्री कृष्ण भगवान जी, भीषम को अरु मोहिं ।
जौन ज्ञान दिन्हों रहै, तौन सुनायो तोहिं ॥७॥
कहन सुनन ते ना मिलै, यह धन गुरु के पास ।
जानि लेय सेवा करै, बसै अमरपुर खास ॥८॥
रोम रोम ते धुनि उठै, चित्त गयो आकास ।
सदा आकासवत रहै, तब पहुँचै हरि के पास ॥९॥
रूप सदा निरखत रहै, सुरति शब्द में लागि ।
तन मन ते गुरू कृपा भै, सबै कामना भागि ॥१०॥
अपनै आप को चीन्हि कै, बैठि गयो मुख मौन ।
अनइच्छित तब ह्वै गयो, बस्यौ अमरपुर भौन ॥११॥
या से देरी मत करौ, गुरु से नाम को जान ।
द्रोण कहैं जाने बिना, खुलै न आँखी कान ॥१२॥