२१३ ॥ श्री कौस्तुभ मणि जी ॥
चौपाई:-
नाम परताप कहौं कछु भाई। निस दिन सुमिरेहुँ चित्त लगाई ॥१॥
तब खुश भये शिरी रघुराई। हार गले का मोहिं बनाई ॥२॥
दोहा:-
या से देरी ना करौ, तन मन करि एकतार ।
राम कृपानिधि के बनौ, सांचा गले क हार ॥१॥
चौपाई:-
नाम परताप कहौं कछु भाई। निस दिन सुमिरेहुँ चित्त लगाई ॥१॥
तब खुश भये शिरी रघुराई। हार गले का मोहिं बनाई ॥२॥
दोहा:-
या से देरी ना करौ, तन मन करि एकतार ।
राम कृपानिधि के बनौ, सांचा गले क हार ॥१॥