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२३८ ॥ श्री कीलदास जी ॥


दोहा:-

राम नाम परताप ते, भई समाधी मोरि ।

हमको कछु मालुम नहीं, सत्य कहौं कर जोरि ॥१॥

हरि की इच्छा अति प्रबल, पुरुष एक कोइ आय ।

लोहे का कीला मेरे, शिर में दीन चलाय ॥२॥

मुझको कछु मालूम नहीं, हिल्यौ न ऐकौ रोम ।

राम नाम परताप ते, कील ह्वै गई मोम ॥३॥

ऐसा नाम प्रताप है, सांचा ह्वै जो जाय ।

तब काहे नहिं हरि मिलैं, सांची कही सुनाय ॥४॥