२४८ ॥ श्री कबीरदास जी ॥
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सर्पन के कुंडल कानन में । फन फनात चहुँ दिशि आनन में ॥७॥
गले में अंग अंग में सोहैं । गंगा शिर लखि सुर मुनि मोहैं ॥८॥
विच्छुन के कछु गले में माला । पीले हरे लाल रंग काला ॥९॥
विच्छू स्वेत जटन में जानो । चमचमात जैसे मनि मानो ॥१०॥
अरुन नयन मुख अरुन विशाला । मुंडन के लटकै उर माला ॥११॥
भाल विशाल चन्द्र तहँ सोहैं । वरनि सकै अस जग कवि को है ॥१२॥
सुन्दर वदन वघम्वर आसन । गिरिजा कमलासन वामासन ॥१३॥
भस्म लगी तन सोहत कैसे । देख्यों मुख मैं दर्पन जैसे ॥१४॥
सारा वदन हमार देखाना । जय जय जय शंकर भगवाना ॥१५॥
नील कंठ जो गले विराजै । शोभा लखत काम गति लाजै ॥१६॥
आठ भुजा सोहैं जगदम्बा । कहत जिन्हैं सुर मुनि सब अम्बा ॥१७॥
वरनि सकै को छवि महरानी । धन्य धन्य माता सुखदानी ॥१८॥
जगत जननि सब गुन की खानी । हर दम सुधि राखैं मन वानी ॥१९॥
बैठी तहाँ सरस्वती माता । विद्या वारिधि बुध्दि कि दाता ॥२०॥
आठ भुजा कोमल मृदु वानी । रूप रासि शोभा गुन खानी ॥२१॥
चारि भुजा शिव शंकर स्वामी । अलख निरंजन अन्तर्यामी ॥२२॥
दाहिने कर तिरशूल विराजै । बायें कर में डमरू छाजै ॥२३॥
दाहिने कर पीछे कर जो है । ता में भङ्ग क गोला सोहै ॥२४॥
बायें कर पीछे कर जानो । सब जहरन की झोरी मानो ॥२५॥
दाहिने बैठ षड़ानन वाटे। तारक असुर समर जिन काटे ॥२६॥
चौबिस भुजा षड़ानन जानों । एक एक कर अस्त्र हैं मानो ॥२७॥
पारवती माता के बायें । वैठे वीर भद्र लखि पाये ॥२८॥
चारि भुजा इनके हैं सुन्दर । बड़े वीर रन धीर धुरंधर ॥२९॥
चारिउ में तो अस्त्र लिये हैं । बैठे अकड़े शान किये हैं ॥३०॥
दोहा:-
भैरव जी कोतवाल हैं, करैं सबै सन्मान ।
जो जैसा भोजन चहै, वैसै दें सामान ॥१॥
चौपाई:-
चारि भुजा इनके तन सोहैं। अरुन नयन अरु भौहं रिसोहैं ॥१॥
चारिउ भुजन में अस्त्र हैं धारे। जानत हैं सब जानन हारे ॥२॥
नाचैं प्रेत योगिनी भाई। औ वैताल वीर सब आई ॥३॥
ठोकैं ताल लड़ै मुँह बाई। बिरलै वहँ पर कोइ ठहराई ॥४॥
गिरैं उठैं फिर भिरैं न मानैं। ऐसे कठिन कंराल महानै ॥५॥
कोइ मुख एक कोई मुख साता। कोइ दुइ मुख कोइ है बिन वाता ॥६॥
कोइ इक टांग कोई तिन टंगा। कोइ दुइ टांग कोई चौटंगा ॥७॥
कोइ बेहाथ कोई पचहत्था। कोइ नहिं सीस कोई नवमत्था ॥८॥
कोइ दुइ नयन कोई पचनयना। कोइ नहिं नयन कोई दसनयना ॥९॥
कोइ तिन कान कोई चौकाना। कोइ एक कान कोई नहिं काना ॥१०॥
कोइ नहिं नाक कोई दुइ नाकैं। कोइ चौनाक कोई षट नाकैं ॥११॥
कोइ डेढ़ पेट कोई तिन पेटा। कोइ नहिं पेट कोई एक पेटा ॥१२॥
कोइ नहिं पीठ कोई दुइ पीठी। कोइ तिन पीठ कोई चौपीठी॥१३॥
कोइ दुइ लिंग कोइ तिन लिंगा। कोइ नहिं लिंग कोई चौलिंगा ॥१४॥
कोई नहिं होंठि कोई दुइ होंठा। कोई तिन होंठि कोई षट होंठा ॥१५॥
मुँह फैलाय के दौरें भाई। मानौ काल पहुँचिगा आई ॥१६॥
नंगे रहैं वसन नहि अंगा। कारे कारे मनहुँ भुजंगा ॥१७॥
बड़े बड़े दसन केश भुँइ लोटैं। पकरि लेहिं तेहि कूब घसोटैं ॥१८॥
नख औ दाँत लागि तन जावैं। प्रेतन के तन रुधिर न आवैं ॥१९॥
माया के वै प्रेत हैं भाई। अपनी इच्छा हर प्रगटाई ॥२०॥
नाना वाहन उनकै जानो। जिन देखत लागै डर मानौ ॥२१॥
कहँ लगि खेल तुम्हैं बतलाई। हर की गति कोइ पार न पाई ॥२२॥
सिंह भगौती का तहँ गरजै। उठै शब्द मानहुँ घन गरजै ॥२३॥
बोलै मोर षड़ानन केरा। धुनि सुनि भा प्रसन्न मन मेरा ॥२४॥
नन्दी गन प्रसन्न मन माहीं। राम नाम विसरत छिन नाहीं ॥२५॥
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