२४८ ॥ श्री कबीरदास जी ॥
जारी........
मूख गज वदन के हैं पायक। वैठे सुमिरैं श्री रघुनायक ॥२६॥
दोहा:-
कैलाश भवन के मध्य में, अहै अक्षय वट वृक्ष ।
ताकी शोभा क्या कहूँ, है अति कोमल स्वच्छ ॥१॥
ताके नीचे रहत हैं, गिरिजा सहित महेश ।
रहैं और गन भौन में, समय समय हों पेश ॥२॥
मानसरोवर पास है, मानौ श्री कैलाश ।
सब को दर्शन होत नहीं, बात कही हम खास ॥३॥
चौपाई:-
सांचे भक्त जौन हर केरे। सो वहँ आनँद करत घनेरे ॥१॥
दोहा:-
पावैं हव्य अनार सब, भूषन वसन औ जान ।
मान सरोवर में करैं, नित प्रति सब स्नान ॥१॥
राम नाम सुमिरन करैं, मै परिवार के आप ।
अजर अमर रहते सदा, हैं प्रभु आपै आप ॥२॥
हमसे गिरिजापति कह्यौ, राम नाम जो जान ।
सोई मेरा प्रान है, हम हैं वाके प्रान ॥३॥
आतम तो सब एक है, परदा द्वैत क लाग ।
द्वैत छूट आवन मिटा, आपै आप में लाग ॥४॥
चौपाई:-
एक एक रोवाँ में भाई। अगनित हरि ब्रह्माण्ड बनाई ॥१॥
स्वाँस में अगनित आवैं जावैं। हरि को भेद कोई नहिं पावैं ॥२॥
राम नाम जिन गुरु से जाना। तिनको मिलिगे कृपानिधाना ॥३॥
दोहा:-
शिव के धाम को जाहिं जे, सीधे श्री कैलाश ।
चढ़ि विमान सो जात हैं, तन मन चित्त हुलास ॥१॥
चौपाई:-
गौर बदन दुइ भुज नर नारी। भूषन वसन कि छवि अति प्यारी ॥१॥
कैलाशपुरी में वसत जौन हैं। वारह वर्ष के रहत तौन हैं ॥२॥
दोहा:-
वैकुण्ठ और कैलास को, जौन जीव जब जायँ ।
भूषन वसन श्री गरुढ़ जी, तुरतै दें पहिराय ॥१॥
तब सिंहासन उठत है, मृत्युलोक से जान ।
कह कबीर अस होत है, सुन लीजै सनमान॥२॥
वैकुण्ठ और गोलोक ह्वै, साकेत पुरी को जाहिं ।
वैतरनी विरजा नदी, भव सागर ह्वै जाहिं ॥३॥
राति वहाँ पर होय नहिं, सांची मानों बात।
हरि की लीला अति अगम, कौन कहे हे तात ॥४॥
कर्मन के अनुसार सब, रहत लीजिये मान ।
कर्मै श्रेष्ट व भ्रष्ट हैं, कर्म करो हो ज्ञान ॥५॥
कर्मै सुर मुनि सब कही, कर्म शरीर क धर्म ।
कर्म लखावैं सतगुरू, तब कछु जानौ मर्म ॥६॥
कर्म करत निष्कर्म हो, छूटै भर्म औ शर्म ।
रहौ एक रस तब सदा, होहु न कबहूँ गर्म ॥७॥
यह अध्यात्मिक ज्ञान है, लगा रहै वसुयाम ।
तार कभी टूटै नहीं, रोम रोम हो नाम ॥८॥
रूप सदा सनमुख रहै, अनुपम कृपानिधान ।
जो जानै सो मानि है, कौन देहुं परमान ॥९॥
कबीर कहै हर दम भजौ, राम नाम ही मूल ।
नाहीं तो शिव मारि हैं, साँची कहौं त्रिशूल ॥१०॥