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॥ अथ इन्द्रासन वर्णन ॥

गारी:-

नाम कबीर हमार है भैया तुमको हम बतलाई जी॥१॥

संशय रहै न तनकौ तन मन सुनिये प्रेम लगाई जी ॥२॥

चारौं बैकुण्ठ कैलाश क हाल कहेन कछु भाई जी ॥३॥

गऊ लोक शुकदेव जन्म की कथा तुम्हैं बतलाई जी ॥४॥

इन्द्रपुरी का हाल मुख्तसिर कहिहौं बहुत न भाई जी ॥५॥

लिखत लिखत तुमहूँ थकि जैहौ तन मन ते अकुलाई जी ॥६॥

हरि की लीला अगम अकह है पार नहीं कोइ पाई जी ॥७॥

अकथ अथाह कहै कोइ कहँलगि संतन कछु कहि पाई जी ॥८॥

सतगुरू चरन कमल सुमिरन करि बार बार शिर नाई जी ॥९॥

कहौं कथा सुनिये अब चित दै श्री गुरु चरन को ध्याई जी ॥१०॥

 

मन स्थिर जिनका है जानौ उनकी भली भलाई जी ॥११॥

नाहीं तो पांचों ये चोरवा सुनतै दें लतियाई जी ॥१२॥

दुतिया मुरही के सँग माया अपनै नाच नचाई जी ॥१३॥

मन मलीन सँग उठै वासना बाजा अमित बजाई जी ॥१४॥

मनुआँ ता में थिर थिर नाचै गजब भयौ तब भाई जी ॥२५॥

स्थिर जाको मन ह्वै जावै सो यह गारी गाई जी ॥१६॥

नाही तो हम कहे देत हैं फ़जिहत ह्वै है भाई जी ॥१७॥

वीर्य दोष ते बचिहैं नाहीं बुद्धी कम ह्वै जाई जी ॥१८॥

साधन सिध्दि नाम को होवै सो या को सुनि पाई जी ॥१९॥

अक्स इसी का खिंचि जाता है तन मन में सब भाई जी ॥२०॥

 

राति समय में वही देखिहो मन का कारन आई जी ॥२१॥

दिन तो कटिहैं इधर उधर में राति तो वही दिखाई जी ॥२२॥

झूठै सुख को सुख करि मानौ नर्कै परै सो जाई जी ॥२३॥

अब सुनि लेव वहाँ की बातैं चर्चा जहाँ क आई जी ॥२४॥

हरि इच्छा ते भवन बने तहँ बरनि सकै को भाई जी ॥२५॥

पाँच रंग के फर्श बिछे हैं मखमल के सम भाई जी ॥२६॥

पैर परै दब जाय बीत भर बैठत बहु सुख आई जी ॥२७॥

वापी कूप तड़ाग बने तहँ कमल खिले सुखदाई जी ॥२८॥

भवँरन की गुँजार उठै तहँ भन्न भन्न भन्नाई जी ॥२९॥

झुँड के झुँड कहाँ लगि वरनौं भवँरन कमल छिपाई जी ॥३०॥

 

नाना विधि के वृक्ष लगे तहँ पुष्प सुगन्ध उड़ाई जी ॥३१॥

चाँदी के सम जड़ैं व पेड़ी शाखा सुवरन भाई जी ॥३२॥

पत्ती हरी हरी हैं तिनमें नेत्रन को सुखदाई जी ॥३३॥

पुष्पन के रँग कौन बतावैं देखत मन ललचाई जी ॥३४॥

सदा एक रस बने रहैं वह कबहूँ नहिं कुम्हिलाई जी ॥३५॥

तूरे दोउ हाथन नहिं टूटैं हैं अति कोमल भाई जी ॥३६॥

हम तो तूरेन तूरि न पायन बहुत गयन खिसियाई जी ॥३७॥

चलै समीर मंद गति शीतल पुष्पन महक मिलाई जी ॥३८॥

ज्ञानिन के तहँ ज्ञान रद्द हों काम कृषानु जलाई जी ॥३९॥

पुष्प उन्ही के हाथन टूटैं और तूरि नहिं पाई जी ॥४०॥

 

राति वहाँ तौ होतै नाहीं सदा प्रकाशै भाई जी ॥४१॥

जंगल की हाजत नहिं होती नहिं लघुशंका भाई जी ॥४२॥

रोम रोम ते हवा रूप ह्वै निकसि जात है भाई जी ॥४३॥

चारौं बैकुण्ठन औ यहँ पर भोजन एकै आई जी ॥४४॥

श्याम स्वेत औ लाल पीत तहँ कमल अहैं सुखदाई जी ॥४५॥

हरे रंग औ जरा गुलाबी बुँदकी बहु रँग भाई जी ॥४६॥

उठैं तरंगै हिये उमंगैं बैठि कै उठा न जाई जी ॥४७॥

जिन तालन में कमल नहीं हैं हंस किलोल मचाई जी ॥४८॥

चकई चकवा बहु रँग पक्षी कहँ लगि उन्हैं बताई जी ॥४९॥

चातक कीर कोकिला हेरिल बोलैं आनन्द छाई जी ॥५०॥

 

कुहुकैं मोर नाच बहु नाचैं देखत ही बनि आई जी ॥५१॥

जारी........