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॥ अथ इन्द्रासन वर्णन ॥

जारी........

वेद शास्त्र पढ़ि कै करै, साधन सो कछु जान ।

या पहिले साधन करै, तौ कछु होवै ज्ञान ॥४॥

कह कबीर तेहि पुरुष का, आवागमन न होइ ।

श्री गुरु आज्ञा सिर धरै, काम सिध्द सब होइ ॥५॥

 

चौपाई:-

इन्द्र पुरी में इन्द्र विराजत। सिर पर अनुपम ताज है छाजत ॥१॥

भूषण वसन गौर तन सुन्दर। षोडश वर्ष के रहत पुरन्दर ॥२॥

चारि भुजा उनके सुखदाई। देखत बनै कहत नहिं आई ॥३॥

जल के जौन नक्षत्र हैं जानो। ते सब कहे में उनके मानो ॥४॥

जब चाहैं तब ही बरसावैं। असमय समय को कौन बतावैं ॥५॥

करैं विहार अप्सरन माहीं। तन मन प्रेम ते अति हर्षाहीं ॥६॥

इन्द्र कि पुण्य क्षीण हो जबहीं। मृत्यु लोक को आवै तबहीं ॥७॥

करैं भजन बैकुंठ सिधावैं। पर नारायण के ढिग आवैं ॥८॥

वहां से पुण्य क्षीण होवै जब। मृत्यु लोक को फिरि आवैं तब ॥९॥

करै भजन तजि हर्ष औ शोका। तब जावै सुनिये सतलोका ॥१०॥

सहस वर्ष बीते मृतुलोका। एकै दिन भा इन्द्र के लोका ॥११॥

 

दोहा:-

कैलाश पुरी सुख भोगिकै, फिरि आवैं मृतलोक ।

करैं भजन निष्काम ह्वै, तब जावैं सतलोक ॥१॥

मृत्युलोक के वर्ष जब, चारि सहस ह्वै जाँय ।

तब कैलाश क एक दिन, कह कबीर ह्वै जाँय ॥२॥

साधन बिन मिलिहै नहीं, सांची कहैं कबीर ।

है सब के ढिग सब जगह, ताली सतगुरु तीर ॥३॥

सबै वस्तु हरि आप हैं, और न दूसर कोय ।

जानि लेय गुरु पास जब, नित्य मुक्त तब होय ॥४॥

तन मन प्रेम लगाय कै, दीन बनै जो कोय ।

सतगुरु के परताप ते, सबै काम तेहि होय ॥५॥

कथनीवालेन से भला, सुनिये विष्टा मूत ।

खादि बनत ताकी अहै, होय वस्तु मजबूत ॥६॥

मानुष पक्षी पशु के, हित में लागै जान ।

देव कार्य औ पितृ हित, दान मान सन्मान ॥७॥

कलि से आयू दस गुनी, द्वापर युग में होय ।

द्वापर युग से दस गुनी, त्रेतायुग में होय ॥८॥

त्रेतायुग से दस गुनी, सतयुग में लेव जान ।

कह कबीर सांची कही, मानो वचन प्रमान ॥९॥