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॥ अथ इन्द्रासन वर्णन ॥

जारी........

हव्य अनार पवावैं अपनै मुख पोछैं फिरि भाई जी ॥१०४॥

फुलवारिन में फिरि टहलावैं हाथ गले में लाई जी ॥१०५॥

फूल सुगंध बिछाय पलंग पर देवैं फेरि सोवाई जी ॥१०६॥

चरन चापि कै चंवर डुलावैं मधुर स्वरन ते गाई जी ॥१०७॥

जब जागौ तब वही खेल हो और काम नहिं भाई जी ॥१०८॥

जो कोइ पहुँचै प्रथम मिलन में माता बोलै भाई जी ॥१०९॥

तौ फिरि नहीं नगीचे आवैं दूरि ते जायँ पराई जी ॥११०॥

 

तब तो बौलैं तनिक नही वै पुत्र भाव उर आई जी ॥१११॥

फिरि वह देखै घूमि चहूँ दिशि निर्भय ह्वै कै भाई जी ॥११२॥

देखि कै उरझै नहीं वहां वह कोइ न आँख उठाई जी ॥११३॥

सांचे सतगुरु का चेला सो ध्यान में देखै भाई जी ॥११४॥

लौटै देखि के वहां जौन कोइ धुनी नाम की पाई जी ॥११५॥

जयते में तै करैं यहां पर मरि आगे सो जाई जी ॥११६॥

नाहीं तो आखिर में जाकर वहँ पर गोता खाई जी ॥११७॥

कच्चा खाय जाय वहँ गच्चा परै चभच्चा भाई जी ॥११८॥

विषयानन्द अनन्द मानिकै आपै फिरि फँसि जाई जी ॥११९॥

महा कठिन यह मारग जानौ सतगुरु ही निवुकाई जी ॥१२०॥

 

इन्द्र के साथ में बहुत अप्सरा यही खेल करैं भाई जी ॥१२१॥

कहौं कहां लगि काम कहानी संस्कार हैं भाई जी ॥१२२॥

सोई भोग भोगाइ रहै हैं चलत न कछु चतुराई जी ॥१२३॥

अश्वमेध सौ यज्ञ करै जो सो सुरेश ह्वै जाई जी ॥१२४॥

तिनको यह पदवी मिलती है इन्द्र नाम कहलाई जी ॥१२५॥

शौक शरम दोनों नयनन में वास करत हैं भाई जी ॥१२६॥

शौक शरम को दाबि देत है समय समय पर भाई जी ॥१२७॥

शौक नयन के ऊपर रहती शरम तो नीचे भाई जी ॥१२८॥

यहि का हाल तुम्हैं बतलावैं जानि लेहु मन भाई जी ॥१२९॥

शौक रूप हरि सृष्टि बनावैं शरम क साथ लगाई जी ॥१३०॥

 

शरम रूप हरि धर्म बचावैं मानौ सांच बताई जी ॥१३१॥

शौके ते तो भजन होत है बिना शौक नहि भाई जी ॥१३२॥

शरम से भजन होत है नाहीं बुध्दि विलग ह्वै जाई जी ॥१३३॥

शौक से धर्म करै धर्मेश्वर पावौ जग यश भाई जी ॥१३४॥

शौक बिना धर्मौ नहिं होता शरम अकेल डेराई जी ॥१३५॥

शक्ती दोनो मिलि कै प्यारे काम होत यह भाई जी ॥१३६॥

शौकै प्राण बचावै सुनिये शौके गला कटाई जी ॥१३७॥

भजन के शौक ते प्रान बचत हैं विषय से गला कटाई जी ॥१३८॥

शौक शरम दोनों जब छूटैं तब विशुध्दि कहलाई जी ॥१३९॥

हरि ने सृष्टी रची जबै तब सब में द्वैत लगाई जी ॥१४०॥

 

बिना द्वैत के होत खेल नहिं कैसे आई जाई जी ॥१४१॥

शौक होय दुइ किस्म क बचुआ कहौं सुनो समुझाई जी ॥१४२॥

विषयानन्द शौक का फल यह आवागमन न जाई जी ॥१४३॥

परमानन्द शौक गुरु किरपा आवागमन नसाई जी ॥१४४॥

बुरा भला जो कहौं और तो हमको सब रिसिआई जी ॥१४५॥

कही कि साधू ह्वै कै तुमको कैसी बात बताई जी ॥१४६॥

निन्दा कि कोइ बात नहीं है गुरु की देव दोहाई जी ॥१४७॥

पढ़ि सुनिकै हम कहा नहीं आँखिन देखा भाई जी ॥१४८॥

कहौ तुम्हैं परतीति परी जो हम कछु तुम्हैं बताई जी ॥१४९॥

 

दोहा:-

कर्म करै जप यज्ञ का, गुरु से ले जो कोइ ।

हरि हर दम सन्मुख रहैं, रोम रोम धुनि होइ ॥१॥

जियतै मुक्ती भक्ति पद, द्वैत जाय सब खोइ ।

यह अध्यात्मक ज्ञान है, तन मन प्रेम से होइ ॥२॥

शून्य समाधी होय तब, ज्ञान भानु परकाश ।

तब जानौ वाके भये, पाप पुण्य सब नाश ॥३॥

जारी........