॥ श्री बैकुण्ठ वर्णन ॥
जारी........
दोहा:-
शंख चक्र गदा पद्म कर, लक्ष्मीनिधि के जान ।
औरन के कर कछु नहीं, सांची लीजै मान ॥१॥
चौपाई:-
हब्य अनार जहाँ जहँ जावैं। वहँ पर भूषण वसन पठावैं ॥१॥
अगनित वृक्ष हैं रंग बिरंगा। भूषन वसन फरैं बहुरंगा ॥२॥
भूषन वसन क काम लगै जब। हरि इच्छा ते तुरत गिरैं तब ॥३॥
आपै आप इकट्ठा हैं सब। लगे ढेर देखा है हम सब ॥४॥
फटैं वसन नहिं भूषन टूटैं। यह आनन्द वहाँ सब लूटैं ॥५॥
भूषन वसन मैल नहिं जानौ। चमकत हैं जैसे मणि मानौ ॥६॥
रोज रोज बदली सब की हो। हरि इच्छा ते नहिं कमती हो ॥७॥
भूषन वसन छुटैं जहँ जब ही। अन्तरध्यान होंय तहँ तब ही ॥८॥
नाना रंग के फर्श बिछे हैं। तिन में बूटा बेल खिंचे हैं ॥९॥
फूलन के बिरवा तहँ जो हैं। तीनै तीनि हाथ सब सोहैं ॥१०॥
जड़ पेड़ी चाँदी सम तिन में। शाखा सुवरन सम है जिन में ॥११॥
हरी हरी पत्ती हैं जिनमें। रंग रंग के फूल हैं तिन में ॥१२॥
भांति भांति सिंहासन सोहैं। पांति पांति देखत मन मोहैं ॥१३॥
तिन पर बैठे प्राणी सोहैं। धर्म कीन नर नारी जो हैं ॥१४॥
पाठ कीन माला जप कीना। भूखेन को भोजन जल दीना ॥१५॥
पर स्वारथ हित प्रान गँवाये। सीधे ते सब यहिं पर आये ॥१६॥
शरीर काटि जिन होमै कीना। ते वहिं जाय के वासा लीना ॥१७॥
तन मन प्रेम से वेद पढ़ायो। ते सब जाय वास वहँ पायो ॥१८॥
कुवाँ बावली ताल बनायो। फुलवारी औ बाग लगायो ॥१९॥
तीरथ वर्त प्रेम से कीन्हें। ते सब वास वहीं पर लीन्हें ॥२०॥
पर उपकार धर्म बहु कीन्हों। जाय के वास वहाँ तिन लीन्हो ॥२१॥
झूला परे वहाँ बहु भाई। नर नारी झूलैं सुख पाई ॥२२॥
बिन आधार पड़े सब झूला। धनि किरपानिधि आनन्द मूला ॥२३॥
फूलन की सुगन्ध अति प्यारी। मधुर मधुर तहँ चलत बयारी ॥२४॥
पक्षी नारायण धुनि करते। वृक्षन ऊपर मधुर स्वरन ते ॥२५॥
राम ब्रह्म साकेत के वासी। तिनके चारि अंश सुखराशी ॥२६॥
पर नारायण नरनारायण। नारायण लक्ष्मी नारायण ॥२७॥
एक एक बैकुण्ठ में सोहैं। शोभा निरखि के सुर मुनि मोहैं ॥२८॥
पालन करत सतो गुन खानी। सुर मुनि वानी वेद बखानी ॥२९॥
सबै जीव पहले यहँ आवैं। लक्ष्मी निधि के दर्शन पावैं ॥३०॥
दोहा:-
कर्मन के अनुसार फिरि, चारों में बटिजाहिं ।
तन मन से सुख भोगते, हर्ष न हृदय समाहिं ॥१॥
दस्त पेशाब न होत वहँ, साँची कहौं सुनाय ।
हवा रूप बनि वदन से, रोअन ह्वै उड़ि जाय ॥२॥
चौपाई:-
चारों बैकुण्ठन की भाई। एकै शकल बनी सुखदाई ॥१॥
क्षीर समुद्र प्रथम में जानो। औरन में नाहीं है मानो ॥२॥
इतनै फरक जानि हम पाई। और सबै मोहिं एक लखाई ॥३॥
दोहा:-
तेइस करोड़ वर्ष तक, प्रथम बैकुण्ठ में जान ।
छियालिस करोड़ वर्ष तक, दूसरे में सुखमान ॥१॥
उनहत्तरि करोड़ वर्ष तक, तीसरे में है जान ।
बान्नवे करोड़ वर्ष तक, चौथे में सन्मान ॥२॥
सहसवर्ष मृत्युलोक के, वहां के दिन हों एक ।
राति वहां होतै नहीं, हरि अनुमान को टेक ॥३॥
चौपाई:-
दुसरे में दो सहस को जानो। तिसरे में तुम तीनि को मानो ॥१॥
चौथे में तो चारि भये हैं। ऐसे दिन हरि बाँटि दये हैं ॥२॥
दोहा:-
कर्मन के अनुसार ते, चारों में हैं जात ।
सतगुरु के परताप ते, कछु जानेनि हम तात ॥१॥
जारी........