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॥ अथ साकेत वर्णन ॥

मोक्ष जीव जब होत हैं, तिनका कहौं हवाल ॥१॥

जाको सुनिकै तुरत ही, तुम हो जाव निहाल ॥२॥

चार पारषद हैं लगे, सिंहासन रमणीक ॥३॥

बैठे ता पर मुक्त जन, चारि भुजा तन ठीक ॥४॥

नग्न बदन तन वसन नहिं, पांच वर्ष सम जान ॥५॥

गौर वदन लाजै मदन, ऐसा रूप महान ॥६॥

उड़ैं पारषद तिनहिं लै, जायँ शम्भु के धाम ॥७॥

हर कर तब सिर पर धरैं, लै कै राम क नाम ॥८॥

उठै सिंहासन तहां ते, जाय इन्द्र के धाम ॥९॥

धूप आरती होय तहँ, करैं इन्द्र परनाम ॥१०॥

 

बाजा अमित बजै तहां, करैं अप्सरा गान ॥११॥

उठै सिंहासन तहां ते, संग में चलै निशान ॥१२॥

तब लक्ष्मीनिधि पास में, जाय के फिरि ठहरान ॥१३॥

दर्शन करि फिरि चलत भा, नारायण अस्थान ॥१४॥

वहां ते दर्शन करि चल्यौ, नर नारायण पास ॥१५॥

करि दर्शन पहुँचत भयो, पर नारायण पास ॥१६॥

दर्शन करि किरतार्थ ह्वै, गयो चन्द्र के धाम ॥१७॥

गईं अप्सरा इन्द्र की, फिर सब अपने धाम ॥१८॥

चन्द्र लोक से पलटि के, आयो सूर्य के धाम ॥१९॥

सूर्य लोक से फिरि गयो, गउ लोक जहँ श्याम ॥२०॥

 

गऊ लोक में कृष्ण जी, हव्य अनार पवाय ॥२१॥

झूला पर ढारैं सुनो, दीन्हों साथ झुलाय ॥२२॥

कह्यौ कि अब चलिये तुरत, बसो अमरपुर धाम ॥२३॥

यहां नाम मम श्याम है, वहां नाम मम राम ॥२४॥

सत्य लोक को चलत भा, उठि विमान हर्षाय ॥२५॥

राम ब्रह्म ढिग पहुँचिगा, सो सुख कहो न जाय ॥२६॥

उठि कै दीन दयाल प्रभु, कर गहि आसन दीन ॥२७॥

कुण्डल मुकुट सँवारि कै, श्याम बरन तन कीन ॥२८॥

बारह वर्ष क रूप प्रभु, दीन बनाय विचित्र ॥२९॥

जानि न पावै भेद कोइ, जो हरि करैं चरित्र ॥३०॥

 

अमृत प्याय के फेरि हरि, इच्छा गत करि दीन ॥३१॥

मुख कबहूँ खुलिहै नहीं, सूरति रूप में लीन ॥३२॥

प्रतिमा सम पधरे रहैं, सुनिये मन चित लाय ॥३३॥

मौन भये अब जानिये, सांचे मांहिं समाय ॥३४॥

कह कबीर साकेत का, हाल सुनायन जान ॥३५॥

सिंहासन तहँ अमित हैं, बैठे सन्त महान ॥३६॥

 

चौपाई:-

महा प्रकाश तहां है भाई। अगणित सूर्य जांय शरमाई ॥१॥

 

दोहा:-

नाम रूप परकाश लय, पाय जाय जो कोय ।

ताको यह पदवी मिलै, बड़ी मोक्ष यह होय ॥१॥

नाम रूप परकाश लय, चारिउ हरि के अंग ।

पूरन रूप बनै वही, होय न तनकौ भंग ॥२॥

प्रतिमा ज्यों की त्यों रहै, राम श्याम सम जान ।

है सब से सोई भला, देखन में तौ आन ॥३॥

चिन्ह अमिट होबैं नहीं, कह कबीर लेव जान ।

सन्त हंस देखत अहैं, धरि के ध्यान निशान ॥४॥

जैसे योगी ध्यान करि, पहुँचि जाय छिन माहिं ।

वैसे जावैं मुक्त जन, जानि लेव मन माहिं ॥५॥

उनको स्वप्न समान हो, जानि न पावै अन्त ।

ऐसी लीला भक्त हित, धन्य धन्य भगवन्त ॥६॥

 

चौपाई:- अंश मुक्त भक्तन के आवैं। कृष्ण हृदय में उन्हैं लगावैं ॥१॥

जारी........