२५० ॥ श्री शिव जी ॥
गज़ल:-
श्री विष्णु जी की थि जिसपै झांकी चढ़ाई सुनिये श्री लक्ष्मी जी ने ॥१॥
श्री राम सिय की थी जिसपै झांकी चढ़ाई मानो श्री गौरी जी ने ॥२॥
श्री राम अनुज व पवन सुत झांकी कि मणि चढ़ाई श्री शारद जी ने ॥३॥
ये तीनों मणियाँ चढ़ीं उसी दिन, पूरण की मानस गोसाईं जी ने ॥४॥
हुई थी सुर मुनि की भीर ऐसी न देखा होगा कभी किसी ने ॥५॥
गिरिन के उपर से फूल आये चढ़ाये मुनि पर उन्हैं सभी ने ॥६॥
ढका था सारा बदन मुनी का बस दोनों आँखें खोली हरी नें ॥७॥
दिगम्बर कहँ तक तुम्हैं बतावैं करी यह लीला श्री राम जी ने॥८॥
दोहा:-
औरङ्गजेब यहँ आइ कै, कीनो सात मुकाम ।
बरमकुण्ड के पास में, भठियारी के धाम ॥१॥
छत्र फर्श तीनो मणी, उसने लीन लुटाय ।
समै केर बलिहार है, दिल्ली दीन पठाय ॥२॥
गये रहे हनुमान जी मम दर्शन कैलास ।
एक साख वट की सुनौ, लाये सहित हुलास ॥३॥
आय कुबेर को दीन दै, दीन्हों भेद बताय ।
श्री अयोध्यापुरी में या को गाड़ौ जाय ॥४॥
शुभ दिन शुभ तिथि शुभ समय आय गयो अति नीक ।
जाय के साखा गाड़िये, वचन कहेन हम ठीक ॥५॥
आये श्री कुबेर जी, अर्ध्द रात्रि में मान ।
गाड़ि दीन तहँ साख को, सबै देव मुनि जान ॥६॥
होति सबेरा ह्वै गयो, बढ़िकै वृक्ष विशाल ।
यह लीला रघुनाथ की, दीन बन्धु किरपाल ॥७॥
कछु विचार मति कीजिये, शान्ति चित्त ह्वै जाव ।
बचन दिगम्बर का यही, सूरति शब्द लगाव ॥८॥
सम्वत दिन तिथि लेव लिखि, तब तन मन हो शान्ति ।
रहै न तनकौ फेरि कछु, तुम्हरे मन में भ्रान्ति ॥९॥
पन्द्रह सौ सत्तर रहै, सम्वत दिन गुरुवार ।
मास फाल्गुन पूर्णिमा, आधी रात मँझार ॥१०॥
श्री कुबेर वटशाख को, रोपि दीन यहि ठाम ।
तुलसी चौरा कहत जेहि, बार बार परनाम ॥११॥
सोरठा:-
होय अभेद अखेद, मुक्ति भक्ति तेहि देयँ हरि ।
जानि के गुरू से भेद, सूरति शब्द में देयँ भरि ॥१॥
साधन करिकै देख, जियतै में तै यहँ करै ।
सुर मुनि संतन लेख, सो साकेत में पग धरै ॥२॥
दोहा:-
समय न ऐसा मिलै फिरि, सुनि लीजै हे पुत्र ।
जग हितार्थ हित करि दियो, हैं सब ब्रह्म के सुत्र ॥१॥
मरना साँचा है वही, पहिचान्यौ जिन आप ।
आप आप का खेल है, जान्यौ आपै आप ॥२॥
सोरठा:-
उठै न कोइ विचार, तन मन प्रेम से धुनि सुनै ।
शब्दै सब का सार, वचन दिगम्बर यह भनै ॥१॥