२५१ ॥ श्री हनुमान जी ॥
दोहा:-
सबै देव हम से कह्यौ, जाहु अवध हनुमान ।
रामायण जेहि विधि बनी, देहु लिखाय सुजान ॥१॥
संशय यामें रहै नहिं, मानो वचन हमार ।
पढ़ै सुनै जो प्रेम से, जाय न नर्क मँझार ॥२॥
भव सागर से पार हो, होवै जय जयकार ।
राम रूप मानस अहै, जानहिं जाननहार ॥३॥
तन मन प्रेम लगाय के, लिखौ कहैं हम तात ।
या में संशय है नहीं, सत्य सत्य सब बात ॥४॥
बारह पर जब दुइ बजे, उठै शौच मुनि जान ।
करि सरयू स्नान फिरि, आये यहँ परमान ॥५॥
गायत्री का जाप करि मन्त्र राज कियो जाप ।
श्री जानकी मन्त्र को, तब फिरि कीन्हों जाप ॥६॥
श्री गुरु का ध्यान करि, नैन बन्द करि लीन ।
राम नाम की धुनी में, भये मुनी लवलीन ॥७॥
प्रातः काल जब ह्वै गयो, सूर्य को कीन प्रणाम ।
शालिग्राम को फेरि मुनि, नहवायौ वहि ठाम ॥८॥
श्री गोमती चक्र यक, यक श्री सीताराम ।
येक नर्मदेश्वर रहे, शुकुल रंग कछु श्याम ॥९॥
शेष सनातन गुरू जो, विद्या बुध्दि निधान ।
तिनकी तीनों मूर्ति हैं, पूजत हैं मुनि जान ॥१०॥
धूप दीप करिके प्रभुहिं, मेवा धर्यौ अगार ।
तुलसी का दल हरा यक, तामें दीनों डार ॥११॥
आँख बन्द करि लीन मुनि, देखन लगे चरित्र ।
बाल रूप आये तहां, चारिउ रूप विचित्र ॥१२॥
लीन मुनक्का खाय तहँ, सुनिये चारेउ भाय ।
जल को पीकर बैठिगे, सो सुख कहो न जाय ॥१३॥
तब आरती कपूर की, कीन्हों तुलसीदास ।
पांचों परिकरमा करी, तन मन बढ्यौ हुलास ॥१४॥
साष्टांग दण्डवत करी, मुख से बोलि न जाय ।
गइ चारिउ महराज की, सूरति हिये समाय ॥१५॥
अन्तरध्यान भये तबै, छोड़ि गये कछु भोग ।
तब हमहूँ लै लीन कछु, मिल्यौ ठीक संयोग ॥१६॥
गोस्वामी को दीन कछु, हम कछु लीन्हों खाय ।
जल प्रभु को जूठा पिएन, दोऊ जन हर्षाय ॥१७॥
इतने पर तो समय शुभ, आय गयो लेव जान ।
आये सब सुर मुनि सहित श्री विष्णु भगवान ॥१८॥
शिर पर फेर्यौ हाथ हरि, बार बार हर्षाय ।
देव मुनिन आशिष दियो, कार्य सुफल ह्वै जाय ॥१९॥
सोरह सौ इकतीस रहै, सम्वत विक्रम जान ।
चैत राम नवमी रही, भौमवार दिन मान ॥२०॥
पश्चिम मुख करि बैठि के, आठ बजे दिन जान ।
ठाकुर सिंहासनहिं धरि, लीन दाहिने मान ॥२१॥
सबै देव मुनि को कियो, बार बार परनाम ।
दिब्य लेखनी दीन दै, श्री शंकर तेहि ठाम ॥२२॥
कर में कलम को लीन लै, कहँ लगि करौं बखान ।
भीतर बाहर एक रस, अनुभव सब दर्शान ॥२३॥
सातों काण्ड कि इति कियो, चारि बजे मुनि नाथ ।
देव मुनिन जय जय करी, तन मन सबै सनाथ ॥२४॥
गोस्वामी पर फूल तहँ, चढ़े बहुत ही जान ।
देव मुनिन लखि गिरिन ते, लाये उत्तम मान ॥२५॥
मूँदि गये ता में मुनी, देखि परै नहिं देह ।
जारी........