२५२ ॥ श्री स्वामी योगानन्द जी ॥
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छाता सहसौ फनन का, सब ऊपर ह्वै जाय ॥१९॥
शुकुल वर्ण हैं शेष जी, जिमि लक्ष्मी निधि पास ।
पय के उपर बैठ हैं, बनि कै सेज हुलास ॥२०॥
वैसे हैं दरबार में, बहुत होत परकाश ।
सुर मुनि सब तहँ एक रस, तन मन प्रेम विकाश ॥२१॥
चारि वेद जो हैं सही, जानत हैं सब नाम ।
वेद अथर्वण ऋगु यजुर, चौथे वेद हैं साम ॥२२॥
चारों बैकुण्ठन रहत, एक एक लेव जान ।
चारौं जनन का होत है, वहाँ बड़ा सन्मान ॥२३॥
परनारायण पास में, रहत साम हैं वेद ।
नरनारायण पास में, रहत यजुर हैं वेद ॥२४॥
नारायण के पास में ऋक् वेदहिं लेव जान ।
लक्ष्मीनिधि के पास में, वेद अथर्वण मान ॥२५॥
साम वेद ब्राह्मण वरण, यजुर हैं क्षत्री जान ।
ऋग्वेद हैं वैश्य कुल, शूद्र अथर्वण मान ॥२६॥
चौपाई:-
सामवेद के शुकुल वसन तन। यजुर वेद के लाल वसन तन ॥१॥
वसन पीत ऋग्वेद के भाई। वेद अथर्वण श्याम सुहाई ॥२॥
दोहा:-
चारि चारि इनके भुजा, सुन्दर रूप विचित्र ।
वसन मनोहर बदन में, हरि के कहैं चरित्र ॥१॥
करिकै अस्तुति बैठते, सभा मध्य सुनि लेहु ।
तब फिर राग औ रागिनी, उठैं गान सुनि लेहु ॥२॥
चारिउ बैकुण्ठन रहैं, एक एक दिन जान ।
इनका आदर सब जगह, होवै लीजै मान ॥३॥
चौपाई:-
राग रागिनी मय परिवारा। चारि चारि भुज सबन निहारा ॥१॥
भूषण वसन बदन में छाजैं। जिन्हहिं देख कुसुमायुध लाजैं ॥२॥
दोहा:-
तन मन प्रेम से नाचते गावैं मधुरी तान ।
हरि के चरित विचित्र कहि, बैठि जाहिं फिरि जान ॥१॥
उठैं तबहिं फिरि तुम्बरू, जो गन्धर्व महान ।
वीणा बायें कर लिये, गौर बदन हैं जान ॥२॥
चारि भुजा इनके अहैं, वसन शुकुल तन माहिं ।
प्रेम ते हरि गुण गावते, तन मन ते हर्षाहिं ॥३॥
चारौं बैकुण्ठन रहैं, एक एक दिन जान ।
हरि गुन गान में मगन हैं, सांची लीजै मान ॥४॥
वीणा की धुनि अपनि धुनि, एक में देहिं मिलाय ।
देखत ही बनि परत है, मुख से कहि नहिं जाय ॥५॥
हरि गुन गान को बन्द करि, बैठि सबन शिर नाय ।
तब तीनों युग खड़े हों, सुनिये चित्त लगाय ॥६॥
बैकुण्ठपुरी में रहत हैं, तीनौ युग यह जान ।
जहां जहां जे रहत हैं, सो सब करौं बखान ॥७॥
चौपाई:-
सतयुग परनारायण के ढिग। त्रेता नरनारायण के ढिग ॥१॥
द्वापर नारायण ढिग जानौ। वचन मोर यह सत्यै मानौ ॥२॥
दोहा:-
सतयुग ब्राह्मण वर्ण हैं, त्रेता क्षत्री जान ।
द्वापर वैश्यक वर्ण हैं, सांची लीजै मान ॥१॥
चौपाई:-
शुकुल रूप औ शुकुल वसन तन। बारह भुज सतयुग के हैं तन ॥१॥
परा से जपत राम को नामा। मुख से हरि स्तुति नित कामा ॥२॥
लाल वसन लालै तन जानौ। त्रेता युग की रूप है मानौ ॥३॥
पैषन्ती से नाम उठावैं। मुख से हरि के गुण बहु गावैं ॥४॥
पीत वसन पीतै तन सोहैं। द्वापर युग देखत मन मोहैं ॥५॥
जारी........