४१ ॥ श्री मँगरू जी, कोरी ॥
कजरी:-
झूला नैनन सन्मुख झूलैं राधे कृष्ण जानकी जान।
मुरली अधर धरे छेड़त हैं मधुर मधुर क्या तान।
ताकैं दृगन की कोर प्रिया को मन्द मन्द मुसुक्यान।
तन मन प्रेम से भजन करैं जे पावैं पद निर्वान।
धुनी ध्यान अन्तर नहीं होवै तब हो चतुर सुजान।
श्री सतगुरु की कृपा से मँगरू, खुलैं नैन औ कान।६।
दोहा:-
निशि बासर सुमिरन करै, सो है पूरा बीर।
मँगरू नाम व रूप ले, बैठि जाय हरि तीर॥