८२ ॥ श्री नकुल जी ॥
पद:-
गगन से धुनी प्रथम फरियानी दूसर त्रिकुटी जानो।
तीसरि श्रवण से होती है चौथि सहस दल थानो।
त्रिकुटी के नीचे यह नीरज बचन सत्य मम मानो।
जोति निरंजन शिव शक्ति जहँ देखौ करिकै ध्यानो।
पचईं जाय दृगन ते होती युगुल रूप तहँ राजैं।५।
दहिने नेत्र में हरि को बासा बायें मातु विराजैं।
छठई धुनी नासिका से हो सतईं कण्ठसे जानो।
अठईं हिरदय से होती है नवईं नाभि से मानो।
दसईं षट दल से है होती लिंग इन्द्रिय जानो।
ग्यरहीं गुदा चक्र से होती जहँ गणेश बैठानो।१०।
बरहीं मध्य भाग पीठी से तीनि बिष्णु तहँ जानो।
तेरहीं जोड़ जोड़ से होती धुनि सुनि हिय हर्षानो।
उठत चौदहीं रोम रोम ते तन मन प्रेम ते सानो।
मातु पिता हर दम सन्मुख हैं नकुल कहैं यह जानो।
जिह्वा से वैखरी जाप औ सार असार बतावे।१५।
कथा कीर्तन कटु मृदु बानी जग में यह फैलावे।
तिल के ओट में सब कौतुक है देखै सोई मानौ।
कहे सुने से मिले न यह पद सतगुरु से लै जानो।१८।
चौपाई:-
तीनि मार्ग हैं भजन के जानो। मीन पपील विहंग को मानो।१।
विहंग मार्ग सूरति को जानो। मीन मार्ग स्वांसा को मानो।२।
मार्ग पपील कण्ठसे जारी। मन ही मन हरि नाम उचारी।३।
दोहा:-
तन मन प्रेम लगाइये जाप खुलैं सब ठौर।१।
बचन नकुल को मानिये होहु सन्त शिर मौर।२।
अभयन्तर की धुनी से सब में लाग्यो तार।३।
सुर मुनि शक्ति सबै मिलि करते तहां बिहार।४।
चौपाई:-
ब्रह्म की बाणी यह है भाई। ब्रह्म नाड़ि में होत सदाई॥
सब पसार या को शिव गायो। बीज रकार इसे बतलायो॥