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९९ ॥ श्री वृत्ता सुर ॥

९९ ॥ श्री वृत्ता सुर ॥

चौपाई:-

हरि मिलने की सहज उपाई। बाल अबोध बनै सो पाई।

नौ करोड़ कत्यानी देवी। छत्तिस कोटि चमुण्डा देवी।

तैतिस कोटि देवता जानो। सहस अठासी ऋषि हैं मानो।

उन्चास कोटि पृथ्वी पर भाई। साढ़े तीनि कोटि तीरथ सुखदाई।

जल चर थल चर नभ चर सारे। नर नारी सब वर्ण संवारे।५।

 

राम श्याम सबके तन मन हैं। आनन्द हू के आनन्द धन हैं।

दीन भाव में प्रेम अखण्डित। नेकौ होत नहीं है खण्डित।

हरि को दीन भाव अति प्यारा। दीनन को हरि करत दुलारा।

तन मन धन जिन हरि पर बारी। तिन पायो रघुबर गिरधारी।९।

 

दोहा:-

सर्व धर्म तजि हरि भजै एक तार जो कोय।

ता के सन्मुख रहैं हरि अन्त राय नहि होय।१।

 

चौपाई:-

जो सुमिरन यहं पर नहिं करिहैं। सो वँह जाय नर्क में परिहैं।१।

या से मानो कहा हमारा। भजहु नाम हो बहु भवपारा।२।

ऐसा समय फेरि नहि पैहौ। नर्क में फिर पछिताय के रोइहौ।३।

बृत्ता सुर यह कहैं बिचारी। भजौ नाम होवै सुख भारी।४।