१०५ ॥ श्री सूत जी ॥
पद:-
नाम धुनि सुनि मन आठौं याम।
ना कर चलै न जिह्वा डोलै न कछु लागै दाम।
आपै सुमिरन होत निरन्तर आपै आप क काम।
र रंकार के अन्तरगत है अगणित रूप व नाम।
पांचौ चोर तीनि गुण माया करते नित्य प्रणाम।५।
ज्ञान अग्नि में कर्म शुभा शुभ जरि ह्वै गे बेकाम।
राम सिया की झांकी सन्मुख सुन्दर शोभा धाम।
सूत कहैं श्री गुरु से लैकर सुरति शब्द पथ थाम।८।