११० ॥ श्री हुलसी माता जी ॥
जारी........
होवै जब हम सयान लेवैं नहि दधि का दान अबहिं कछु नहीं ज्ञान
बोलैं तुतलैया।
बृज को हम छोड़ि जाब छूटी तब दधि का खाब देवैं गृह क्या जवाब
चढ़ी बहु मोटैया।
पूछैं क्या भाव देव पैसा पहिले हि लेव चाखन तब सबै देव
झूठ नहि कहैया।
पैसा सब हमैं देत माखन दधि फेरि लेत हंसि हंसि सब पाय लेत
बोलत सुखदैया।
पकरत हरि मोहिं दौरि पैसा सब लेत छोरि बोलैं तब करत शोर
ऐसे कुटिलैया।३०।
आँखिन में धूरि झोंकि जावैं किमि देत रोंकि कोई नहिं सकत
टोंकि ऐसे धुरतैया।
चूमत कहुँ अधर आय मेटुकी को दें गिराय नाचैं औ लें नचाय
छोड़ैं तब मैया।
थूकैं तन पान खाय कपड़ा सब दें भिजाय ताली सब मिलि बजाय
हंसते अति मैया।
ढेला कर लें उठाय मेटुकी पर दें चलाय लगतै चट फूटि जाय
सारा तन भिजैया।
दौरैं मुख बाय बाय जिह्वा को लपलपाय मानहुँ कछु नशा खाय
गारी कटु देवैया।३५।
मेटुकी शिर पर से लेंय खावैं कछु फेंकि देंय मेटुकी को पटकि देंय
ग्वालन लै भगैया।
अपने तन दधि लगाय लेपैं ग्वालन के धाय दौरैं यमुना नहाय
करते छिप छिपैया।
ग्वालन के कांधे धाय बैठैं पीछे से हाय मेटुकी झट लेंय हाय
करि दें थुक थुकैया।
खावैं सब ताकि ताकि मेटुकी फिर झांकि झांकि बूरा को फांकि फांकि
वांधे सब पोटैया।
चोरी करने को जांय निशि हू बासर कन्हाय माखन दधि दूध पांय
शिकहर के तुरैया।४०।
देखन में लागैं छोट हैं तो यह बड़े खोंट पकरैं औऱ दें घसोट
गिरौं धरनि मैया।
जैसे हम सोय जांय वैसे यह पहुँचि जांय मेटुकी लै निकसि जांय
पता नहि लगैया।
कबहूँ दधि खाय लेंय मेटुकी औंधाय देंय जल हू तहँ पाय लेंय
गगरी सब फौरैया।
कबहूँ मेटुकी को फोरि टुकड़ा बहु तोरि तोरि पानी में धरैं बोरि
सिकहर लै भगैया।
पहुँचैं चुपके से जाय मेटुकी को लें उठाय पृथ्वी पर देंय नाय
पानी भर धरैया।४५।
पकरैं तस मचलि जात कनियां ते सरकि जात छूटै तस सटकि जात
फेरि कब मिलैया।
पहुँचैं यह रैनि जाय सोवत जहँ हमै पाय ऊपर से दहि नाय
आवैं यदुरैया।
बेला भर दही नाय मेरे ढिग ढाँकि जाँय मुख में कछु दें लगाय
जागैं तब जनैया।
यमुना जल भरन जाँय पीछे ते साथ जांय भरि कै जब चलैं माय
गगरी चट फोरैया।
लकुटि मेटुकी में मारि भागति फिरिहैं मुरारि टेरत सब ग्वाल झारि
आवो दधि खवैया।५०।
लकुटी लै नोकदार मेटुकी में कोचि मारि पीछे से गिरत धार
जारी........