॥ माटी खान लीला ॥
॥ माटी खान लीला ॥
जारी........
बांधैं यशुमति होवै छोटी। जोरैं एक में पतरी मोटी।
छोटि परै गांठी नहि लागै। यशुमति के तब अति रिसि जागै॥
तब बलराम कहैं सुनु माई। आदि पुरुष हरि हैं सुखदाई।
इनको कौन बांधि हें माई। भक्तन हित प्रगटे जग आई॥
सब को बांधन छोरन हारे। सबको पालन उत्पति वारे।
सब को परलय पल में कर दें। सब को फिर पल ही में रचदें॥
प्रेम से भक्तन बश कर लीन्हा। प्रेमै के हरि रहत अधीना।
पुर नर नारि सुन्यौ यह बाता आज रिसानी हरि पर माता॥
नर नारी सब देखन आवैं। यशुमति को सब मिलि समुझावैं।
काहे बांधौ कुँवर को माता। रोय रहे अति कोमल गाता।१०५।
यशुमति कहैं सुनो मम बानी। नित प्रति ये करते बहु हानी।
पूजा के हित दही जमाई। दीन जुठारि बड़े दुखदाई॥
देवन की पूजा सुखदाई। दीन छोड़ाय आज यदुराई।
या ते हम इन पर रिसियाई। पीटव सांटिन बांधि अघाई॥
सब नर नारी कहैं यशोमति। तुम्हरी ठीक नहीं है यह मति।
दही के कारन मारो श्यामहिं। शान्त करो अपने अब जामहिं॥
कहैं यशोमति सब नर नारी। आदति इनकी दिहेव बिगारी।
कबहूँ इनको डाटेव नाहीं। ओरहन बस लायेव हम पाहीं॥
अधिक दुलारा लड़िका होई। मातु पिता के बचन को खोई।
लड़िकी अधिक दुलारी होवै। सो तौ दोनों कुलन को खोवै।११०।
अपने अपने गृह को जावो। तुम सब हमको क्या समुझावो।
सुनि सब पुरवासी चलि दीन्हे। तन मन दुःख श्याम रस भीने॥
हलधर कहैं छोड़िये माई। बांधि न पैहौ तुम यदुराई।
रसरी कितनी लै कर जोरी। वृद्ध अवस्था मति भइ भोरी॥
तन मन ते तो करौ बिचारा। खुल जावैं तब ज्ञान केंवारा।
क्रोध बुद्धि की हानि करत है। क्रोध से धीरज दूर टरत है॥
कहैं यशोमति हल धर भैया। भक्तन बश जो कुँवर कन्हैया।
करौं परीक्षा अबहिं न देरी। देखौं बात सांच है तेरी॥
दोहा:-
सतयुग के भक्तन शपथ, यशुमति कहैं सुनाय।
जो हरि तुमरे प्रिय हों, तौ तुम लेव बंधाय।११५।
चौपाई:-
अस कहि बांधन लागीं माई। गांठि न लगै अति रिसिआईं।
दोहा:-
त्रेता द्वापर के भगत, जौन होंय हरि तोर।
तिनकी शपथ देवावती, लेव बंधाय यह डोर।११६।
चौपाई:-
अस कहि फिर बंधन कर लायो। बैठी न सक्यो गांठिदुख छायो।
तब यशुमति बोलीं रिसिआई। कलि के भक्तन शपथ खवाई॥
फिर बांधन लागीं जब माई। रसरी बढ़ी बंधे यदुराई।
ऊखल में बांध्यो हरखाई। हलधर को सौंप्यो बैठाई॥
अब गृह को मैं कार्य्य सँवारो। जो न तकौ तो तुमहि निकारौं।
हलधर कहैं सुनो महतारी। अब हम खूब करब रखवारी॥
भागि न पैहैं अब यदुराई। ऊखल बंध्यौ संग में माई।
अस कहि यशुमति भवन में जावैं। दही बटोरन में मन लावैं।१२०।
तब तक श्याम कहैं हलधर से। पकरयो मति भैय्या तुम कर से॥
ऊखल खींचि द्वार मैं जावों। तुम को कैसा खेल देखावों॥
माता को टेरयो मति भाई। शपथ अपन हम तुम्हैं खवाई।
सुनि हरि बचन हँसे बलरामा। कीन्ह चहत हैं प्रभु कुछ कामा।
हम कछु बोल सकैं नहि भैया। निर्भय ह्वै जाओ सुख दैया॥
चले श्याम ऊखल कढ़िलाई। द्वारे पर पहुँचे हरखाई॥
यमलार्जुन द्वै वृक्ष बिशाला। पहुँचि गये ऊखल लै लाला॥
सोरठा:- दोनों वृक्षन बीच, रह्यौ फासिला हाथ भरि।
जारी........