१२८ ॥ श्री जाकिर अली जी ॥
ध्रुपद:-
राम श्याम छबि बिशाल मन्द मन्द चलत चाल केशरि को तिलक भाल
कुण्डल कानन में आल शीश मुकुट राजैं।१।
पीत बसन मन को हरत वायें कांधेन धनुष निषंग तरकश में बाण धारे
कटि में पट पीत वांधे अनुजन संघ बिराजै।२।
मुक्तन के सुभग हार गूँथे हैं स्वर्ण तार पहिने सब गलेन यार
अश्वन पर हैं सवार कोटिन मदन लाजैं।३।
बिहरत श्री अवध धाम निरखत सुरमुनि तमाम पुर के सब नर व
बाम जाकिर सर्वत्र राम सुनिये धुनि गाजैं।४।